वैदिक काल सम्पूर्ण जानकारी -ऋग्वैदिक काल तथा उत्तर वैदिक काल (1500ई.पू-600 ई.पू.) | Vedic Kaal Full History Notes Download Free PDF
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वैदिक काल सम्पूर्ण जानकारी -ऋग्वैदिक काल तथा उत्तर वैदिक काल (1500ई.पू-600 ई.पू.) | Vedic Kaal Full History Notes Download Free PDF
- सैंधव सभ्यता के पश्चात भारत में जिस सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ उसे वैदिक अथवा आर्य सभ्यता के नाम से जाना जाता है। आर्य सभ्यता का ज्ञान वेदों से होता है, जिसमें ऋग्वेद सर्वप्राचीन होने के कारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। सामान्यतः ऐसा माना गया है कि आर्यों ने ही सैंधव सभ्यता के नगरों को ध्वस्त कर एक नई सभ्यता की नींव रखी थी, लेकिन अभी भी इसके कोई ठोस साक्ष्य न होने के कारण इसे कल्पना ही माना जाता है।
- यह भारत की प्राचीन सभ्यता है जिसमें वेदों की रचना हुई। वैदिक शब्द ‘वेद’ से बना है, जिसका अर्थ होता है-‘ज्ञान’। वैदिक संस्कृति के निर्माता आर्य थे। वैदिक संस्कृति में आर्य शब्द का अर्थ-श्रेष्ठ, उत्तम, अभिजात, कुलीन तथा उत्कृष्ट होता है। सर्वप्रथम मैक्समूलर ने 1853 ई. में आर्य शब्द का प्रयोग एक श्रेष्ठ जाति के आशय से किया था। आर्यों की भाषा संस्कृत थी।
अध्ययन की सुविधा से वैदिक संस्कृति को दो भागों में बांटा गया है-
- ऋग्वैदिक काल (1500-1000 ई.पू.)
- उत्तर वैदिक काल (1000-600 ई.पू.)
ऋग्वैदिक काल 1500-1000 ई.पू.
- इस काल का तिथि निर्धारण जितना विवादास्पद रहा है, उतना ही इस काल के लोगों के बारे में सटीक जानकारी प्राप्त करना। ‘ऋग्वेद संहिता’ की रचना इस काल में हुई थी। अतः यह इस काल की जानकारी का एकमात्र साहित्यिक स्रोत है।
- सिंधु सभ्यता के विपरीत वैदिक सभ्यता मूलतः ग्रामीण थी।
- आर्यों काआरंभिक जीवन पशु चारण पर आधारित था। कृषि उनके लिये गौण कार्य था।
- 1400 ई.पू. के बोगजकोई (एशिया माइनर) के अभिलेख में ऋग्वैदिक काल के देवताओं-इंद्र, वरूण, मित्र तथा नासत्य का उल्लेख मिलता है
आर्यों के मूल निवास के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों के विचार अलग-अलग हैं-
विद्वान | आर्यों का मूल निवास स्थल |
प्रो. मैक्समूलर | मध्य एशिया (बैक्ट्रिया) |
बाल गंगाधर तिलक | उत्तरी ध्रुव |
डॉ. अविनाश चन्द्र दास | सप्त सैंधव प्रदेश |
दयानंद सरस्वती | तिब्बत |
नेहरिंग एवं प्रो. गार्डन चाइल्ड | दक्षिणी रूस |
गंगानाथ झा | ब्रह्मर्षि देश |
गाइल्स महोदय | हंगरी अथवा डेन्यूब नदी घाटी |
प्रो. पेंका | जर्मनी के मैदानी भाग |
नोट : अधिकांश विद्वान प्रो. मैक्समूलर के विचारों से सहमत हैं कि आर्य मूल रूप से मध्य एशिया के निवासी थे।
भौगोलिक विस्तार
- आर्यों की आरंभिक इतिहास की जानकारी का मुख्य स्रोत ऋग्वेद है।
- ऋग्वेद में आर्य-निवास स्थल के लिए सप्त सैंधव क्षेत्र का उल्लेख मिलता है, जिसका अर्थ है-सात नदियों का क्षेत्र। ये नदियां हैं-सिंधु, सरस्वती, शतुद्रि (सतलज), विपासा (व्यास), परुष्णी नदी (रावी), वितस्ता (झेलम) और अस्किनी (चिनाब)।
ऋग्वेद से प्राप्त जानकारी के अनुसार, आर्यों का विस्तार अफगानिस्तान, पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक था सतलज से यमुना तक का क्षेत्र ‘ब्रह्मवर्त’ कहलाता था। - मनुस्मृति में सरस्वती और दृशद्वती नदियों के बीच के प्रदेश को ‘ब्रह्मवर्त’ कहा गया है। इसे ऋग्वैदिक सभ्यता का केन्द्र माना जाता है।
- गंगा व यमुना के दोआब क्षेत्र एवं उसके सीमवर्ती क्षेत्रों पर भी आर्यों ने कब्जा कर लिया, जिसे ‘ब्रह्मर्षि देश’ कहा गया। कालांतर में सम्पूर्ण उत्तर भारत में आर्यों ने विस्तार कर लिया जिसे ‘आर्यावर्त’ कहा जाता है।
- वैदिक संहिताओं में 31 नदियों का उल्लेख मिलता है जिसमें से ऋग्वेद में 25 नदियों का उल्लेख किया गया है किन्तु, ध्यान देने योग्य है कि ऋग्वेद के नदी सूक्त में केवल 21 नदियों का वर्णन किया गया है। इस काल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण नदी सिंधु को बताया गया है, जबकि सर्वाधिक पवित्र नदी सरस्वती को माना गया है, जिसे ‘देवीतमा’, ‘मातेतमा’ एवं ‘नदीतमा’ भी कहा गया है।
- ऋग्वेद में गंगा नदी का एक बार, जबकि यमुना नदी का तीन बार नाम लिया गया है।
- ऋग्वेद में हिमालय पर्वत एवं इसकी एक चोटी ‘मुजवंत’ का भी उल्लेख किया गया है।
ऋग्वैदिक कालीन नदियां | |
प्राचीन नाम | आधुनिक नाम |
परूष्णी | रावी |
शतुद्रि | सतलज |
अस्किनी | चेनाब/चिनाब |
वितस्ता | झेलम |
विपासा | व्यास |
गोमती | गोमल |
कुंभ/कुंभा | काबुल |
सदानीरा | गंडक |
कुमु | कुर्रम |
सिंधु | इण्डस |
सामाजिक स्थिति
- ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था। सामाजिक संगठन का आधार गोत्र या जन्ममूलक था समाज की सबसे छोटी एवं आधारभूत इकाई परिवार या कुल थी, जिसका मुखिया पिता होता था, जिसे ‘कुलप’ कहा जाता था। पितृसत्तात्मक समाज के होते हुए भी महिलाओं को यथोचित सम्मान प्राप्त था।
- ऋग्वैदिक काल में संयुक्त परिवार की प्रथा प्रचलित थी। दादा, नानी, नाती, पोते आदि के लिए एक ही शब्द ‘नप्तृ’ का प्रयोग होता था।
- ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था के चिन्ह दिखाई देते हैं।
- ‘ऋग्वेद’ के 10वें मंडल में वर्णित पुरूषसूक्त में चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है। इसके अनुसार विराट पुरूष के मुख से ब्राह्मण, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य जांघों से एवं शूद्र पैरों से उत्पन्न हुए हैं।
- इस काल में स्त्रियां अपने पति के साथ यज्ञ कार्य में भाग लेती थीं। बाल-विवाह, सती प्रथा एवं पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था
- पुत्रियों का ‘उपनयन संस्कार’ किया जाता था। विधवा विवाह की प्रथा प्रचलन में थी।
- सामान्यतः एक पत्नीत्व विवाह ही प्रचलित था
- विवाह में दहेज जैसी कुप्रथा का प्रचलन नहीं था किन्तु ‘वहतु’ शब्द कन्या को दिये जाने वाले उपहार के लिए प्रयुक्त होता था।
शिक्षा के द्वार स्त्रियों के लिए भी खुले थे। ऋग्वेद में लोपामुद्रा, घोषा, सिकता, अपाला, एवं विश्ववारा जैसी विदुषी स्त्रियों का वर्णन है। - आजीवन अविवाहित रहने वाली कन्या ‘अमाजू’ कहलाती थी।
- पुत्र प्राप्ति के लिए नियोग की प्रथा स्वीकार की गयी थी
- इसके अन्तर्गत महिला को अपने देवर से साह्चर्य स्थापित करना पड़ता था।
- ऋग्वैदिक काल में दास प्रथा का प्रचलन था, किन्तु यह प्राचीन यूनान और रोम की भांति नहीं थी।
- आर्य मांसाहारी व शाकाहारी दोनों प्रकार का भोजन करते थे। ऋग्वैदिक काल में सोम और सुरा का प्रचलन था।आर्यों के वस्त्र सूत, ऊन व चर्म के बने होते थे।
- आर्य समाज में विवाह एक पवित्र संस्कार माना जाता था। समाज में दो प्रकार के विवाह प्रचलित थे-
- अनुलोम विवाह-उच्च वर्ण का पुरूष और निम्न वर्ण की स्त्री।
- प्रतिलोम विवाह-उच्च वर्ण की स्त्री और निम्न वर्ण का पुरूष।
- नर्तकियों द्वारा विशिष्ट परिधान ‘पेशस’ धारण करने का विवेचन मिलता है कान में कर्णशोभन एवं शीश पर कुम्ब नामक आभूषण के पहनने की प्रथा थी। इनके अतिरिक्त खादि, रूक्म, भुजबंद, केयूर, नूपुर, कंकण एवं मुद्रिका आदि आभूषण भी धारण किये जाते थे।
यक्ष्मा (तपेदिक) का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है। - मृतकों को प्रायः अग्नि में जलाया जाता था, लेकिन कभी-कभी दफनाया भी जाता था।
- ‘भिषज’ शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में वैद्य के लिए होता था। ‘भिषज’ अश्विन देवता को कहा जाता था।
राजनीतिक स्थिति
- ऋग्वैदिक समाज कबीलाई व्यवस्था पर आधारित था। ऋग्वैदिक लोग जनों व कबीलों में विभाजित थे। कबीले का एक राजा होता था, जिसे ‘गोप’ कहा जाता था।
- आर्यों को पंचजन भी कहा गया है, क्योंकि इनके पांच कबीले (कुल) थे-अनु, द्रुहु, पुरू, तुर्वस तथा यदु।
- ऋग्वैदिक काल में राज्य का मूल आधार कुल (परिवार) था। परिवार का मुखिया ‘कुलप’ अथवा ‘गृहपति’ कहलाता था। कुलों के आधार पर ‘ग्राम’ का निर्माण होता था, जिसका प्रमुख ‘ग्रामणी’ होता था। अनेक ग्राम मिलकर ‘विश’ बनाते थे, जिसका प्रधान ‘विशपति’ होता था। विश से ‘जन’ बनता था जो कबीलाई संगठन था। इसका प्रधान प्रमुख जनपति होता था।
- राजा → पुरोहित → विशपति → ग्रामणी → कुलप
- दशराज्ञ युद्ध : दस राजाओं के साथ युद्ध, दशराज्ञ युद्ध परूष्णी (रावी) नदी के तट पर भरत वंश के राजा सुदास तथा दस जनों-पांच आर्य एवं पांच अनार्य के बीच हुआ था। अंत में इस युद्ध में भरत राजा सुदास की विजय हुई। इस युद्ध का वर्णन ऋग्वेद में विस्तार से किया गया है।
- इस प्रकार आर्यों की प्रशासनिक इकाइयां पांच हिस्सों में बंटी थी-1. कुल, 2. ग्राम, 3. विश, 4. जन और 5. राष्ट्र
- राजतंत्रात्मक शासन प्रणाली मौजूद थी और साथ ही गणतंत्र भी। राजा का प्रमुख कार्य/कर्तव्य कबीले की रक्षा करना था।
- इस काल में अनेक जनतांत्रिक संस्थाओं का विकास हुआ जिनमें सभा, समिति तथा विदथ प्रमुख हैं। इन संस्थाओं में राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक प्रश्नों पर चर्चाएं होती थीं। ऋग्वैदिक काल में महिलाएं भी राजनीति में भाग लेती थीं। सभा एवं विदथ परिषदों में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी थी।
- सभा और समिति राजा को सलाह देने वाली संस्था थी। सभा श्रेष्ठ एवं संभ्रांत लोगों की संस्था थी जबकि समिति सामान्य जनता का प्रतिनिधित्व करती थी। समिति केन्द्रीय राजनीतिक संस्था भी कहलाती थी जो राजा की नियुक्ति, पदच्युत करने व उस पर नियंत्रण रखती थी। विदथ आर्यों की प्राचीन संस्था थी। स्त्रियां सभा एवं समितियों में भाग ले सकती थीं।
- राजा भूमि का स्वामी नहीं होता था, जबकि भूमि का स्वामित्व जनता में निहित था।
- ‘बलि’ एक प्रकार कर था जो प्रजा द्वारा स्वेच्छा से राजा को दिया जाता था। राजा इसके बदले उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेता था। राजा नियमित या स्थायी सेना नहीं रखता था, लेकिन युद्ध के समय वह नागरिक सेना संगठित कर लेता था, जिसका कार्य संचालन व्रात, गण, ग्राम और सर्ध नाम से विविध टोलियां करती थीं।
- ऋग्वेद में राजा को ‘गोप्ता जनस्य’ अर्थात् कबीले का संरक्षक तथा ‘पुराभेत्ता’ अर्थात् नगरों पर विजय पाने वाला कहा गया है।
आर्थिक स्थिति
- ऋग्वैदिक काल में आर्यों की संस्कृति ग्रामीण एवं कबीलाई थी। पशुपालन प्राथमिक पेशा था और कृषि द्वितीयक।
- इस काल में ‘गाय’ को पवित्र पशु माना जाता था और यह विनिमय के साधन के रूप में थी। आर्यों की अधिकांश लड़ाइयां गायों को लेकर होती थीं। गाय को ‘अष्टकर्णी’ भी कहा गया है जो उसके ऊपर स्वामित्व का सूचक है। ‘गविष्टि’-गाय की महत्ता बताने वाला शब्द है। गाय को अघन्या (न मारे जाने योग्य पशु) माना जाता था। गाय की हत्या करने वाले या उसे घायल करने वाले के लिए वेदों में मृत्युदंड अथवा देश निकाले जाने की व्यवस्था थी। पणि नामक व्यापारी पशुओं की चोरी के लिए कुख्यात थे।
- पुत्री को ‘दूहिता’ इसलिए कहा गया क्योंकि वही गाय का दूध दुहती थी।
- घोड़ा आर्य समाज का अति उपयोगी पशु था। इसके अलावा-गाय, बैल, भैंस, बकरी, ऊँट आदि पशु भी थे।
- ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल में कृषि संबंधी कार्य का वर्णन मिलता है। एक ही अनाज यव (जौ) का उल्लेख है। कृषि के महत्व से संबंधित केवल तीन ही शब्द हैं-उर्दर, धान्य और सम्पत्ति( जहां ‘उर्दर’ का अर्थ अन्न मापक बर्तन जबकि ‘धान्य’ का अर्थ अनाज है।
- व्यापार पर पणि लोगों का अधिकार था। व्यापार मुख्यतः वस्तु विनिमय द्वारा होता था। परन्तु विनिमय माध्यम के रूप में गायों व घोड़ों सहित ‘निष्क’ का भी उल्लेख मिलता है जो संभवतः स्वर्ण आभूषण या सोने का टुकड़ा होता था। वेकनाट सूदखोर थे, जो बहुत अधिक ब्याज लेते थे।
- ऋग्वेद में बढ़ई, रथकार, बुनकर, चर्मकार, कुम्हार आदि शिल्पियों के उल्लेख मिलते हैं। सोना के लिए हिरण्य शब्द मिलता है। कपास का उल्लेख कहीं नहीं किया गया है।
- अष्टकर्णी नाम से यह विदित होता है कि ऋग्वैदिक आर्यों को संभवतः अंकों की जानकारी थी।
- ‘अयस’ शब्द का भी इस काल में प्रयोग हुआ है, जिसकी पहचान संभवतः तांबे या कांसे के रूप में की गई है। इस काल के लोग लोहे से परिचित नहीं थे।
प्राचीन नाम | आधुनिक नाम |
उर्वरा | उपजाऊ भूमि |
लांगल, सीर | हल |
बृक | बैल |
करीष, शकृत | गोबर की खाद |
सीता | हल की बनी नालियां |
अवल | कूप (कुआं) |
कीवाश | हलवाहा |
पर्जन्य | बादल |
उर्दर | अनाज मापने वाला पात्र |
तक्षण | बढ़ई |
भिषज | वैद्य |
कुसीद | ऋण लेने व बलि देने की प्रथा |
अनस | बैलगाड़ी |
धार्मिक स्थिति
- ऋग्वैदिक काल में धार्मिक कर्मकांड का उद्देश्य भौतिक सुखों (पुत्र एवं पशु) की प्राप्ति करना था। आर्य बहुदेववादी होते हुए भी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। ऋग्वेद अनेक देवताओं का अस्तित्व मानता है, परन्तु इसमें देवियों के अस्तित्व का अभाव मिलता है। सभी देवता प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक थे। प्रकृति के प्रतिनिधि के रूप में आर्यों के देवताओं की तीन श्रेणियां थीं-
- आकाश के देवता : सूर्य, धौस, वरूण, मित्र, पूषन, विष्णु, सविता, आदित्य, उषा, अश्विन आदि।
- अंतरिक्ष के देवता : इंद्र, रूद्र, मरूत, वायु, पर्जन्य, यम, प्रजापति आदि
- पृथ्वी के देवता : अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, सरस्वती आदि।
- ऋग्वेद में इंद्र को ‘पुरंदर’ भी कहा गया है, ऋग्वेद के 250 सूक्त इंद्र को समर्पित हैं। इंद्र को आर्यों का युद्ध नेता तथा वर्षा, आंधी, तूफान का देवता माना गया है। ‘इंद्र’ आर्यों के सर्वाधिक महत्वपूर्ण देवता थे।
- दूसरे महत्वपूर्ण देवता ‘अग्नि’ थे, जिन्हें 200 सूक्त समर्पित हैं। अग्नि का कार्य मनुष्य एवं देवताओं के बीच मध्यस्थता स्थापित करने का था। तीसरे प्रमुख देवता वरूण थे, जिन्हें 30 सूक्त समर्पित हैं और जो जलनिधि का प्रतिनिधित्व करते हैं। वरूण को ‘ऋतस्यगोपा’ कहा जाता है।
- ‘गायत्री मंत्र’ सविता (सवितृ) देवता को समर्पित है। इसका उल्लेख ऋग्वेद के तीसरे मण्डल में है। इसके रचनाकार विश्वामित्र हैं।
- ‘सोम’ को पेय पदार्थ का देवता माना जाता है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद के ‘9वें मंडल’ में है। धौस को ऋग्वैदिककालीन देवताओं में सबसे प्राचीन माना जाता है।
- सरस्वती, नदी की देवी थीं जो बाद में विद्या की देवी हो गईं।
- ऋग्वैदिक काल में मूर्ति पूजा का उल्लेख नहीं मिलता है। उपासना का उद्देश्य भौतिक सुखों की प्राप्ति था। उपासना की विधि प्रार्थना एवं यज्ञ थी। अरण्यानी ऋग्वैदिक काल में जंगल की देवी थी।
- ऋग्वेद के प्रथम तथा दसवें मंडल की रचना संभवतः सबसे बाद में की गई।
- पूषण ऋग्वैदिक काल में पशुओं के देवता थे जो उत्तर वैदिक काल में शूद्रों के देवता हो गए।
- रूद्र अनैतिक आचरण से सम्बद्ध व चिकित्सा के संरक्षक थे। हॉलर ने इन्हें यूनानी देवता अपोलो के समान माना है। रूद्र को कभी-कभी ‘शिव’ और ‘कल्याणकर’ कहा जाता था।
उत्तर वैदिक काल(1000-600 ई.पू.)
- यह युग आर्य संस्कृति के प्रसार और विकास, अभ्युदय और उत्कर्ष, मतभेद और ऊहापोह तथा विभिन्नीकरण का युग था। इस काल में धर्म, दर्शन, नीति, आचार-विचार, मत-विश्वास आदि की प्रधान रूपरेखा निश्चित और सुस्पष्ट हो गए।
- उत्तर वैदिक काल के अध्ययन के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्रोतों में यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद एवं आरण्यक प्रमुख हैं।
- सामान्यतः लौह प्रौद्योगिकी युग की शुरूआत को उत्तर-वैदिक काल से जोड़ा जाता है, इसके पर्याप्त साक्ष्य भी उपलब्ध हैं।
- इस काल के अध्ययन के लिए चित्रित धूसर एक महत्वपूर्ण साक्ष्य है।
- इस संस्कृति के लोगों का मुख्य केन्द्र मध्य देश था, जिसका प्रसार सरस्वती नदी से लेकर गंगा के दोआब तक था।
भौगोलिक विस्तार
- शतपथ ब्राह्मण के विदेह माधव की कथा में उत्तर वैदिक काल में आर्यों के सदानीरा(गंडक) के पूर्व की ओर प्रसार का वर्णन मिलता है।
- इस काल की सभ्यता का केन्द्र पंजाब से बढ़कर कुरूक्षेत्र(दिल्ली और गंगा-यमुना दोआब का उत्तरी भाग) तक आ गया था।
- 600 ई.पू. के आस पास(उत्तर वैदिक काल के अंतिम दौर में) आर्य लोग कोशल, विदेह एवं अंग राज्य से परिचित थे।
- शतपथ ब्राह्मण में उत्तर वैदिककालीन रेवा(नर्मदा) और सदानीरा(गंडक) नदियों का उल्लेख मिलता है।
- उत्तर वैदिक साहित्य में त्रिककुद, क्रौंच, मैनाक आदि पर्वतों का उल्लेख है, जो पूर्वी हिमालय में पड़ते हैं।
सामाजिक स्थिति
- उत्तर वैदिक काल में सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्णाश्रम व्यवस्था ही था, लेकिन वर्ण व्यवस्था में कठोरता आने लगी थी। वर्णों का आधार कर्म पर आधारित न होकर जाति पर आधारित होने लगा था। समाज में अनेक धार्मिक श्रेणियों का उदय हुआ, जो कठोर होकर विभिन्न जातियों में बदलने लगीं। इस काल में व्यवसाय आनुवंशिक होने लगे।
- इस समय समाज में चार वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र थे। ब्राह्मण के लिए ‘ऐहि’(आइये), क्षत्रिय के लिए ‘आगहि’(आओ), वैश्य के लिए ‘आद्रव(जल्दी आओ) तथा शूद्र के लिए ‘आधाव’(दौड़कर आओ) शब्द प्रयुक्त होते थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य-इन तीनों को ‘द्विज’ कहा जाता था। ये उपनयन संस्कार के अधिकारी थे। चौथा वर्ण शूद्र था, जो उपनयन संस्कार का अधिकारी नहीं था, यहीं से शूद्रों को अपात्र या आधारहीन मानने की प्रक्रिया शुरू हुई।
- इस काल में यज्ञ का महत्व अत्यधिक बढ़ गया, जिससे ब्राह्मणों की शक्ति में अपार वृद्धि हुई। ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में चारों वर्णां के कर्तव्यों का वर्णन मिलता है। इस काल में केवल वैश्य ही कर चुकाते थे, जबकि ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनों वैश्यों से वसूले गए राजस्व पर जीते थे। क्रम में सबसे निचला वर्ण शूद्र था जिसका कार्य अन्य तीनों वर्णां की सेवा करना था।
- इस काल में स्त्रियों की दशा में गिरावट आई। स्त्रियों के लिए उपनयन संस्कार प्रतिबंधित हो गया। ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्री को ‘कृपण’ कहा गया है।
- शतपथ ब्राह्मण में कुछ विदुषी कन्याओं का उल्लेख मिलता है, ये हैं-गार्गी, गंधर्व, गृहीता, मैत्रेयी, देववती, काश्कृत्सनी आदि। स्त्रियों का पैतृक संपत्ति से अधिकार छिन गया तथा सभा में प्रवेश वर्जित हो गया।
- पारिवारिक जीवन ऋग्वेद के समान था। समाज पितृसत्तात्मक था, जिसका स्वामी पिता होता था। इस काल में स्त्रियों को पैतृक संबंधी कुछ अधिकार भी प्राप्त थे।
- उत्तर वैदिक काल में गोत्र व्यवस्था स्थापित हुई। ‘गोत्र’ शब्द का अर्थ है-वह स्थान जहां समूचे कुल के गोधन को एक साथ रखा जाता था। परन्तु बाद में इस शब्द का अर्थ एक मूल पुरूष का वंशज हो गया।
- सर्वप्रथम जाबालोपनिषद में चारों आश्रमों(ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास) का विवरण मिलता है। इस काल में आर्यों को चावल, नमक, मछली, हाथी तथा बाघ आदि का ज्ञान हो गया था।
सोलह संस्कार
- गर्भाधान 2. पुंसवन
- सीमान्तोन्नयन 4. जातकर्म
- नामकरण 6. निष्क्रमण
- अन्नप्राशन 8. चूड़ाकर्म
- कर्णबेध 10. विद्यारंभ
- उपनयन 12. वेदारंभ
- केशांत या गोदान 14. समावर्तन
- विवाह 16. अन्त्येष्टि
विवाह के आठ प्रकार
‘मनुस्मृति’ में विवाह के आठ प्रकारों का उल्लेख किया गया है, जिसमें प्रथम चार विवाह प्रशंसनीय तथा शेष चार निंदनीय माने जाते हैं-
प्रशंसनीय विवाह
1.ब्रह्म : कन्या के वयस्क होने पर उसके माता-पिता द्वारा योग्य
वर खोजकर, उससे अपनी कन्या का विवाह करना।
2.दैव : यज्ञ करनेवाले पुरोहित के साथ कन्या का विवाह।
3.आर्ष : कन्या के पिता द्वारा यज्ञ कार्य हेतु एक अथवा दो गाय
के बदले में अपनी कन्या का विवाह करना।
4.प्रजापत्य : वर स्वयं कन्या के पिता से कन्या मांगकर विवाह
करता था।
निंदनीय विवाह
5.आसुर : कन्या के पिता द्वारा धन के बदले में कन्या का विक्रय।
6.गंधर्व : कन्या तथा पुरूष प्रेम अथवा कामुकता के वशीभुत होकर
करते थे।
7.पैशाच : सोई हुई अथवा विक्षिप्त कन्या के साथ सहवास कर
विवाह करना।
8.राक्षस : बलपूर्वक कन्या को छीनकर उससे विवाह करना।
राजनीतिक स्थिति
- इस काल में पहली बार क्षेत्रीय राज्यों का उदय हुआ तथा कबीले पर शासन करने वाला राजा अब उस प्रदेश पर शासन करने लगा। राष्ट्र शब्द जो प्रदेश का सूचक है, पहली बार इस काल में प्रकट हुआ।
- राजा की दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है।
- उत्तर वैदिक काल में राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था और सशक्त हुई। इस काल में राजा का पद वंशानुगत हो गया था।
- इस काल में राज्य का आकार बढ़ने से राजा का महत्व बढ़ा और उसके अधिकारों का विस्तार हुआ। अब राजा को ‘सम्राट’, ‘एकराट’ और ‘अधिराज’ आदि नामों से जाना जाने लगा।
- इस काल में सभा, समिति आदि प्रतिनिधि संस्थाओं का प्रभाव क्षीण हुआ। विदथ का नामोनिशान नहीं रहा, जबकि सभा और समिति अपनी जगह बनी रही, परन्तु उनका स्वरूप बदल गया। अब उनमें समाज के प्रभावशाली वर्ग का वर्चस्व हो गया। सभा नामक संस्था में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित हो गया।
- आरंभ में पांचाल एक कबीले का नाम था, परन्तु बाद में वह प्रदेश का नाम हो गया। इस काल में पांचाल सर्वाधिक विकसित राज्य था।
- राजा का राज्यभिषेक राजसूय यज्ञ के द्वारा सम्पन्न होता था, जिसका विस्तृत वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। यजुर्वेद में राज्य के उच्च पदाधिकारियों को ‘रत्नी’ कहा जाता था। ‘रत्नियों’ की सूची में राजा के संबंधी, मंत्री, विभागाध्यक्ष एवं दरबारी गण आते थे। शतपथ ब्राह्मण में 12 प्रकार के रत्नियों का विवरण मिलता है-
सेनानी सेनापति
सूत राजा का सारथी
ग्रामणी गांव का मुखिया
भागदुध कर संग्रहकर्ता
संग्रहीता कोषाध्याक्ष
क्षता प्रतिहारी
गोविकर्तन जंगल विभाग का प्रधान
पालागल विदूषक
महिषी मुख्य रानी
पुरोहित धार्मिक कृत्य करने वाला
युवराज राजकुमार
अक्षावाप पासे के खेल में राजा के सहयोगी
- राजा न्याय का सर्वोच्च अधिकारी होता था, ब्राह्मण को मृत्युदंड नहीं दिया जाता था, ‘बलि’ ऋग्वैदिक काल में राजा को दिया जाने वाला स्वेच्छाकारी कर था, जो उत्तर वैदिक काल तक आते-आते एक नियमित कर हो गया। इसकी मात्रा 1/16वां भाग होती थी।
- ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित शासन व्यवस्था-
क्षेत्र | शासन | उपाधि |
पूर्व | साम्राज्य | सम्राट |
पश्चिम | स्वराज्य | स्वराट |
उत्तर | वैराज्य | विराट |
दक्षिण | भोज्य | भोज |
मध्य देश | राज्य | राजा |
आर्थिक स्थिति
- इस काल में पशुपालन की जगह कृषि प्रथम पेशा बन गया। ‘शतपथ ब्राह्मण’ में कृषि से संबंधित चारों क्रियाओं-जुताई, बुआई, कटाई तथा मड़ाई का उल्लेख किया गया है। इस ग्रंथ में ‘विदेह माधव’ की कथा का भी उल्लेख मिलता है, जिससे यह संकेत मिलता है कि आर्य सम्पूर्ण गंगाघाटी में कृषि करने लगे थे।
- इस काल में लोहे से बने उपकरणों के प्रयोग से कृषि क्षेत्र में क्रांन्ति आ गई। यजुर्वेद में लोहे के लिए ‘श्याम अयस’ शब्द का प्रयोग हुआ है। लोहे से बने उपकरणों के प्रयोग से कृषि विस्तार के साथ-साथ फसलों की संख्या में भी वृद्धि हुई और धान प्रमुख फसल बन गई। अतरंजीखेड़ा में पहली बार कृषि से संबंधित लौह उपकरण प्राप्त हुए हैं।
- उत्तर वैदिक काल में कृषि में विस्तार, शिल्पों में कुशलता, व्यापार एवं वाणिज्य में विस्तार के परिणामस्वरूप जनसंख्या में वृद्धि हुई।
- इस काल के लोग चार प्रकार के बर्तनों(मृद्भांडों) से परिचित थे-काले व लाल रंग मिश्रित मृद्भांड, काले रंग के मृद्भांड, चित्रित धूसर मृद्भांड और लाल मृद्भांड।
- ब्राह्मण ग्रंथों में ‘श्रेष्ठिन’ का भी उल्लेख मिलता है। ‘श्रेष्ठिन’ श्रेणी का प्रधान व्यापारी होता था।
- निष्क, शतमान, पाद, कृष्णल, रत्तिका तथा गुंजा आदि माप की भिन्न-भिन्न इकाइयां थीं। निष्क जो ऋग्वैदिक काल में स्वर्ण आभूषण था, अब एक मुद्रा माना जाने लगा।
- व्यापार पण द्वारा संम्पन्न होता था, अतः उत्तर वैदिक काल में मुद्रा का प्रचलन हो चुका था परन्तु सामान्य लेन-देन में वस्तु विनिमय का प्रयोग किया जाता था। निष्क, शतमान, कृष्णल और पाद मुद्रा के प्रकार थे।
- उत्तर वैदिक आर्यों को समुद्र का ज्ञान हो गया था। इस काल के साहित्य में पश्चिमी और पूर्वी दोनों प्रकार के समुद्रों का वर्णन है। वैदिक ग्रंथों में समुद्र यात्रा की भी चर्चा है, जिससे वाणिज्य एवं व्यापार का संकेत मिलता है।
- स्वर्ण एवं लोहे के अतिरिक्त इस युग के आर्य टिन, तांबा, चांदी और सीसा से भी परिचित हो चुके थे।
- धातु शिल्प उद्योग बन चुका था। इस युग में धातु गलाने का उद्योग बड़े पैमाने पर होता था। संभवतः तांबे को गलाकर विभिन्न प्रकार के उपकरण एवं वस्तुएं बनाई जाती थीं।
- उत्तर वैदिक काल में वस्त्र निर्माण उद्योग एक प्रमुख उद्योग था। कपास का उल्लेख नहीं मिलता है। उर्ण(ऊन), शज(सन) का उल्लेख इस काल में मिलता है।
- सिक्के का अभी नियमित प्रचलन आरंभ नहीं हुआ था।
- ऋण-इनकी संख्या तीन थीं-(1) पितृ ऋण,(2) ऋषि ऋण,(3) देव ऋण।
- पितृ ऋण : संतान उत्पन्न कर व्यक्ति इस ऋण से मुक्त होता था।
- ऋषि ऋण : अपने पुत्र को शिक्षित कर व्यक्ति इस ऋण से मुक्त होता था।
- देव ऋण : धार्मिक अनुष्ठान एवं यज्ञ आदि कर व्यक्ति इस ऋण से मुक्त होता था।
प्रत्येक व्यक्ति को तीन ऋणों से छुटकारा पाना होता था। इन ऋणों से छुटकारा पाने पर ही व्यक्ति का जीवन सफल माना जाता था।
धार्मिक स्थिति
- उत्तर वैदिक काल में भी कर्मकाण्डों का उद्देश्य मूलतः भौतिक सुखों की प्राप्ति करना था। उत्तर वैदिक काल में गंगा-यमुना दोआब आर्य संस्कृति का केन्द्रस्थल बन गया। ऐसा अनुमान है कि सारा उत्तर वैदिक साहित्य कुरू-पांचालों के दूसरे प्रदेशों में विकसित हुआ। यज्ञ इस संस्कृति का मूल था। यज्ञ के साथ-साथ् अनेकानेक अनुष्ठान व मंत्रविधियां भी प्रचलित हुईं।
- ऋग्वैदिक काल के दो सबसे बड़े देवता इंद्र एवं अग्नि अब उतने प्रमुख नहीं रहे। इंद्र के स्थान पर प्रजापति(सृजन के देवता) को सर्वाच्च स्थान मिला। इस काल के दो अन्य प्रमुख देवता रूद्र(पशुओं के देवता) व विष्णु(लोगों के पालक) माने जाते हैं। इस काल में वर्ण व्यवस्था कठोर रूप धारण कर चुकी थी। अतः कुछ वर्णां के अपने अलग से देवता हो गए। पूषन जो पहले पशुओं के देवता थे अब शूद्रों के देवता हो गए।
- सर्वप्रथम शतपथ ब्राह्मण में पुनर्जन्म के सिद्धांत का उल्लेख है। आरण्यकों में वैदिक कर्मकाण्डों की निंदा की गई है। इसमें यज्ञ एवं बलि की अपेक्षा तप पर बल दिया गया है।
- इस काल में दो महाकाव्य थे-महाभारत, जिसका पुराना नाम जयसंहिता था। यह विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य है तथा दूसरा महाकाव्य रामायण है।
- वैदिक आर्यों और सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों की संस्कृति के बीच अन्तर-
- वैदिक आर्यों की सभ्यता ग्रामीण थी जबकि सैंधव सभ्यता नगरीय थी।
- वैदिक आर्य स्वर्ण, चांदी, ताम्र और लोहे से परिचित थे जबकि सैंधव सभ्यता के लोग पाषाण एवं कांसे से परिचित थे, लेकिन अभी लोहे से परिचित नहीं थे।
- वैदिक आर्य बहुदेववाद के समर्थक थे। वैदिक आर्य यज्ञ करते थे। वे लिंग पूजा एवं मूर्ति पूजा के विरोधी थे। जबकि सैंधव सभ्यता में धर्म का स्वरूप इहलौकिक था। सैंधव सभ्यता के लोग लिंग पूजा एवं मूर्ति पूजा के समर्थक थे।
- ऋग्वैदिक आर्यों का पालतू पशु घोड़ा था। ऋग्वैदिक आर्य हाथी और व्याघ्र से परिचित नहीं थे जबकि सैंधव सभ्यता के लोग घोड़े से अपरिचित थे। ये हाथी और व्याघ्र से परिचित थे।
- वैदिक आर्य, युद्ध आदि में अपनी सुरक्षा हेतु कवच और सिर पर शिरस्त्रणा(हेलमेट) का उपयोग करते थे जबकिसिंधु घाटी सभ्यता में इनके उपयोग का कोई भी साक्ष्य नहीं मिला है।
- वैदिक आर्यों की शिक्षा प्रणाली मौखिक थी जबकि सैंधव सभ्यता के लोगों की अपनी एक चित्रात्मक लिपि थी।
- वैदिक आर्यों का समाज परिवार आधारित था। परिवार पितृ-सत्तात्मक होता था जबकि सैंधव सभ्यता का समाज भी परिवार आधारित था। हालाँकि यहां परिवार मातृ-सत्तात्मक था।
- इस काल में मूर्ति पूजा के आरंभ होने का आभास मिलता है। इस काल में प्रत्येक वेद के अपने पुरोहित हो गए-
वेद | पुरोहित |
ऋग्वेद | होतृ |
सामवेद | उद्गाता |
यजुर्वेद | अध्वर्यु |
अथर्ववेद | ब्रह्म |
- उत्तर वैदिक काल में ही बहुदेववाद, वासुदेव संप्रदाय एवं षड्दर्शनों(सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत) का बीजारोपण हुआ। मीमांसा को ‘पूर्व मीमांसा’ एवं वेदांत को ‘उत्तर मीमांसा’ के नाम से जाना जाता है।
- प्रमुख दर्शन एवं उनके प्रवर्तक-
दर्शन | प्रवर्तक |
चार्वाक | चार्वाक /बृहस्पति |
योग | पतंजति(योगसूत्र) |
सांख्य | कपिल |
न्याय | गौतम |
पूर्व मीमांसा | जैमिनी |
उत्तर मीमांसा | बादरायण |
वैशेषिक | कणाद या उलूक |
- मृत्यु की चर्चा सर्वप्रथम ‘शतपथ ब्राह्मण’ तथा मोक्ष की चर्चा सर्वप्रथम उपनिषद में मिलती है। परीक्षित को मृत्युलोक का देवता कहा गया। पुनर्जन्म की अवधारणा बृहदाण्यक उपनिषद में मिलती है। शतपथ ब्राह्मण में ही सर्वप्रथम स्त्रियों को अर्द्धांगिनी कहा गया है।
- उपनिषदों में स्पष्टतः यज्ञों तथा कर्मकाण्डों की निंदा की गई है तथा ब्रह्म की एक मात्र सत्ता स्वीकार की गई है। छांदोग्य उपनिषद में केवल तीन आश्रमों का उल्लेख मिलता है-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ। परन्तु बाद में जाबालोपनिषद में सर्वप्रथम चारों आश्रमों(ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) का उल्लेख मिलता है।
प्रमुख यज्ञ
अश्वमेध यज्ञ – सर्वाधिक महत्वपूर्ण यज्ञ, राजा द्वारा साम्राज्य की सीमा में वृद्धि के लिए, घोड़े को स्वतंत्र छोड़ दिया जाता था।
राजसूय यज्ञ – राजा के राज्याभिषेक से संबंधित।
वाजपेय यज्ञ – राजा द्वारा अपनी शक्ति के प्रदर्शन के लिये रथदौड़ का आयोजन।
अग्निष्टोम यज्ञ – पापों के क्षय और स्वर्ग की ओर ले जाने वाली नाव के रूप में वर्णित।
सौत्रामणि यज्ञ – यज्ञ में पशु एवं सुरा की आहुति।
पुरूषमेध यज्ञ – राजनैतिक वर्चस्व के लिए स्वस्थ्य तथा विद्वान पुरूष की बलि का प्रावधान।
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वैदिक संस्कृति का काल सिन्धु सभ्यता के पश्चात स्वीकार किया गया है राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक प्रवृत्तियों में हुए मौलिक विकास क्रम एवं परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए | अध्ययन की सुविधा हेतु वैदिक काल को दो भागों में विभाजित किया गया है–(1) ऋग्वैदिक या पूर्व वैदिक काल (2) उत्तरवैदिक काल ।
वैदिक सभ्यता का काल
- याकोबी एवं तिलक ने ग्रहादि सम्बन्धी उद्धरणों के आधार पर भारत में आर्यों का आगमन 4000 ई० पू० निर्धारित किया है।
- मैक्समूलर का अनुमान है कि ऋग्वेद काल 1200 ई० पू० से 1000 ई० पू० तक है।
- मान्यतिथि– भारत में आर्यों का आगमन 1500 ई० पू० के लगभग हुआ।
आर्यों का मूल स्थान आर्य किस प्रदेश के मूल निवासी थे, यह भारतीय इतिहास का एक विवादास्पद प्रश्न है। इस सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों द्वारा दिए गए मत संक्षेप में निम्नलिखित हैं।
- यूरोप 5 जातीय विशेषताओं के आधार पर पेनका, हर्ट आदि विद्वानों ने जर्मनी को आर्यों का आदि देश स्वीकार किया है।
- गाइल्स ने आर्यों का आदि देश हंगरी अथवा डेन्यूब घाटी को माना है।
- मेयर, पीक, गार्डन चाइल्ड, पिगट, नेहरिंग, बैण्डेस्टीन ने दक्षिणी रूस को आर्यों का मूल निवास स्थान माना है। यह मत सर्वाधिक मान्य है।
- आर्य भारोपीय भाषा वर्ग की अनेक भा%