ब्रिटिश शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में धनिक वर्ग द्वारा भू-संपत्ति में निवेश करने को तरजीह दिए जाने के कारण उद्योगों का कोई स्वतंत्र विकास नहीं हो सका। 1793 ई. में लॉर्ड कार्नवालिस ने भू-राजस्व की स्थायी बंदोबस्त प्रणाली को प्रारंभ किया। इसे इस्तमरारी, जागीरदारी, मालगुजारी एवं बीसवेदारी आदि भिन्न-भिन्न नामों से भी जाना जाता है। *यह व्यवस्था बंगाल, बिहार, उड़ीसा तथा उत्तर प्रदेश के वाराणसी तक के क्षेत्र में लागू थी।
इसके अंतर्गत समूचे ब्रिटिश भारत के क्षेत्रफल का लगभग 19 प्रतिशत हिस्सा शामिल था। इस व्यवस्था के अंतर्गत जमींदारों के एक नए वर्ग को भू-स्वामी घोषित कर दिया गया, जिसे भूमि के लगान का 10/11 भाग कंपनी को देना था तथा 1/11 भाग अपनी सेवाओं के लिए अपने पास रखना था। *स्थायी बंदोबस्त के अंतर्गत जमींदार छोटे पूंजीपति (भद्र नवाब) थे।
स्थायी भूमि बंदोबस्त या जमींदारी प्रथा के बाद अंग्रेजों द्वारा भारत में भू-राजस्व वसूली हेतु लागू की गई दूसरी व्यवस्था रैयतवाड़ी व्यवस्था थी। इस व्यवस्था के जन्मदाता टॉमस मुनरो और कैप्टन रीड थे तथा सर्वप्रथम इसे तमिलनाडु के बारामहल जिले में लागू किया गया। तत्पश्चात यह व्यवस्था मद्रास, बंबई के कुछ हिस्से, पूर्वी बंगाल, असम तथा कुर्ग (आधुनिक कर्नाटक का एक भाग) में लागू की गई।
इस प्रथा के अंतर्गत रैयतों को भूमि के मालिकाना और कब्जादारी अधिकार दिए गए थे और प्रत्यक्ष रूप से या सीधे तथा व्यक्तिगत रूप से वे स्वयं सरकार को भू-राजस्व का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी थे। इस व्यवस्था ने कषक भ-स्वामित्व की स्थापना की। इसके अंतर्गत कल ब्रिटिश भारत के भ-क्षेत्र का 51 प्रतिशत हिस्सा शामिल था। इस व्यवस्था के अंतर्गत लगान की वसूली कठोरता से की जाती थी तथा लगान की दर भी काफी ऊंची थी।
महालवाडी पद्धति में भू-राजस्व व्यवस्था कषक के साथ नहीं, बल्कि प्रत्येक ग्राम अथवा महाल (जागीर का एक भाग) के साथ स्थापित की जाती थी। इसके अंतर्गत यदि कोई व्यक्ति अपनी भूमि छोड़ देता था, तो ग्राम समाज इस भूमि को संभाल लेता था। यह ग्राम समाज ही सम्मिलित भूमि (शामलात) तथा अन्य भूमि का स्वामी होता था। यह पद्धति उ.प्र., मध्य प्रांत तथा पंजाब में (कुछ परिवर्तनों के साथ) लागू की गई, जिसके अंतर्गत कुल ब्रिटिश भारत के भू-क्षेत्र का 30 प्रतिशत हिस्सा शामिल था।
औपनिवेशिक शासनकाल में भारत सरकार के गृह शुल्कों (Home Charges) से तात्पर्य इंग्लैंड स्थित राज्य सचिव (Secretary of State) द्वारा भारत सरकार की ओर से किया गया व्यय था। इसमें शामिल थे-भारतीय सार्वजनिक ऋण एवं रेलों पर लगाई गई पंजी पर दिया गया ब्याज, भारत को दी गई सैनिक और अन्य सामग्री की लागत, भारत के कारण इंग्लैंड में दिए जाने वाले नागरिक और सैनिक शुल्क, इंग्लैंड में राज्य सचिव का सारा व्यय (वर्ष 1919 तक) तथा भारत सरकार द्वारा यूरोपीय अफसरों को दिए जाने वाले भत्ते और पेंशन।
भारत के बाहर हुए युद्धों को लड़ने में अंग्रेजों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली निधि गृह शुल्कों पर भारित नहीं थी। ब्रिटिश काल में ‘इंपीरियल प्रेफरेंस’ शब्दावली का प्रयोग भारत में ब्रिटिश आयातों पर दी गई विशेष रियायतों के लिए किया जाता था। इसके तहत भारत में ब्रिटिश आयातों पर नाममात्र का शुल्क (या बिल्कुल नहीं) लगता था, जबकि भारत के निर्यातों पर ब्रिटेन में भारी शुल्क लगाया जाता था।
धन के बहिर्गमन या अपवाह (Drain) की राष्ट्रवादी परिभाषा का तात्पर्य भारत से धन-संपत्ति एवं माल का इंग्लैंड में हस्तांतरण था. जिसके बदले में भारत को इसके समतुल्य कोई भी आर्थिक, वाणिज्यिक या भौतिक प्रतिलाभ नहीं होता था। दादाभाई नौरोजी धन के बहिर्गमन के सिद्धांत के सबसे पहले और सर्वाधिक प्रखर प्रतिपादक थे।
उन्होंने अपने लेखों एवं पुस्तकों – (‘इंग्लैंड डेल्ट टू इंडिया’, ‘पावर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया’, ‘द वॉन्ट्स एंड मीन्स ऑफ इंडिया’ तथा ‘ऑन द कॉमर्स ऑफ इंडिया’) के माध्यम से अपने अपवाह सिद्धांत का प्रतिपादन किया।
रमेश चंद्र दत्त ने भी धन के बहिर्गमन के सिद्धांत पर बल दिया। उन्होंने अपने लेख ‘इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में यह मत प्रकट किया था कि सकल राजस्व का आधा भाग प्रतिवर्ष भारत से बाहर चला जाता है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1896 ई. में अपने कलकत्ता अधिवेशन में आधिकारिक तौर पर ‘बहिर्गमन के सिद्धांत’ को स्वीकार किया और उस समय कांग्रेस ने घोषणा की कि देश में पड़ने वाले अकालों और लोगों की निर्धनता का कारण वर्षों से लगातार चला आ रहा ‘धन का बहिर्गमन’ है।
सर सैयद अहमद खां ब्रिटिश शासन के प्रति वफादार थे, और मुस्लिम समाज का विकास वे भारत में आंग्ल सत्ता के बने रहने में ही संभव मानते थे। अतः वे दादाभाई नौरोजी के उत्सारण सिद्धांत में विश्वास नहीं करते थे। ब्रिटिश शासन के समय अर्थव्यवस्था को खोखला करने के सिद्धांत (Economic drain theory) पर दादाभाई नौरोजी ने पुस्तक लिखी।
दादाभाई ने अंग्रेजी राज्य की शोषक नीतियों का अनावरण किया और कहा कि यह राज्य भारत को दिन-प्रतिदिन लूटने में लगा है जिसके कारण भारत निर्धन देश बनता जा रहा है। इसके परिप्रेक्ष्य में ही उन्होंने अपनी ‘ड्रेन’ थ्योरी दी। दादाभाई नौरोजी (1825-1917) ने 1865 ई. में डब्ल्यू. सी. बनर्जी के साथ मिलकर लंदन इंडिया सोसाइटी का गठन किया, जिसका कार्य भारत के दुःख दर्दी का प्रचार करना था। *1892 ई. में लिबरल पार्टी के टिकट पर ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए चुने जाने वाले वे पहले भारतीय थे।