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भाषा और व्याकरण (Bhasha Aur Vyakaran)

सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य को परस्पर सर्वदा विचार विनिमय करना पड़ता है। कभी वह सिर हिलाने या संकेतों के माध्यम से अपने विचारों या भावों को अभिव्यक्त कर देता है तो कभी उसे ध्वनियों, शब्दों एवं वाक्यों का सहारा लेना पड़ता है। इस प्रकार यह प्रमाणित है कि भाषा ही एक मात्र ऐसा साधन है, जिसके माध्यम से मनुष्य अपने हृदय के भाव एवं मस्तिष्क के विचार दूसरे मनुष्यों के समक्ष प्रकट कर सकता है और इस प्रकार समाज में पारस्परिक जुड़ाव की स्थिति बनती है।

यदि भाषा का प्रचलन न हुआ होता तो बहुत संभव है कि मनुष्य इतना भौतिक, वैज्ञानिक एवं आत्मिक विकास भी नहीं कर पाता। भाषा न होती तो मानव अपने सुख-दुःख का इजहार भी नहीं कर सकता। भाषा के अभाव में मनुष्य जाति अपने पूर्वजों के अनुभवों से लाभ नहीं उठा सकती।

भाषा शब्द संस्कृत के ‘भाष’ से व्युत्पन्न है। ‘भाष’ धातु से अर्थ ध्वनित होता है-प्रकट करना। जिस माध्यम से हम अपने मन के भाव एवं मस्तिष्क के विचार बोलकर प्रकट करते हैं, उसे ‘भाषा’ संज्ञा दी गई है। भाषा ही मनुष्य की पहचान होती है। उसके व्यापक स्वरूप के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि-“भाषा वह साधन है जिसके माध्यम से हम सोचते हैं और अपने भावों/विचारों को व्यक्त करते हैं।”

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। समय के साथ-साथ भाषा में भी परिवर्तन आता रहता है। इसी कारण संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आदि आर्य भाषाओं के स्थान पर आज हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी, बंगला, उड़िया, असमिया, मराठी आदि अनेक भाषाएँ प्रचलित हैं। भारत की राजभाषा हिन्दी स्वीकारी गई है।

वर्ण विचार

किसी भाषा के व्याकरण ग्रंथ में इन तीन तत्त्वों की विशेष एवं आवश्यक रूप से चर्चा/विवेचना की जाती है।

  1. वर्ण 2. शब्द 3. वाक्य

हिन्दी विश्व की सभी भाषाओं में सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है। हिन्दी में 44 वर्ण हैं, जिन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है- स्वर और व्यंजन। स्वर :

___ ऐसी ध्वनियाँ जिनका उच्चारण करने में अन्य किसी ध्वनि की सहायता की आवश्यकता नहीं होती, उन्हें स्वर कहते हैं। स्वर ग्यारह होते हैं, अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, ऋ। इन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है। हस्व एवं दीर्घ ।

जिन स्वरों के उच्चारण में अपेक्षाकृत कम समय लगे, उन्हें हस्व स्वर एवं जिन स्वरों को बोलने में अधिक समय लगे उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। इन्हें मात्रा द्वारा भी दर्शाया जाता है। ये दो स्वरों को मिला कर बनते हैं, अतः इन्हें संयक्त स्वर भी कहा जाता है।

आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ दीर्घ स्वर हैं। स्वरों के मात्रा रूप इस प्रकार हैं : अ – कोई मात्रा नहीं

– । इ – ई – १

4

IS

A

व्यंजन :

जो ध्वनियाँ स्वरों की सहायता से बोली जाती हैं, उन्हें व्यंजन कहते हैं। जब हम क बोलते हैं तब उसमें क् + अ मिला होता है। इस प्रकार हर व्यंजन स्वर की सहायता से ही बोला जाता है। इन्हें पाँच वर्गों तथा स्पर्श, अन्तस्थ एवं ऊष्म व्यंजनों में बाँटा जा सकता है।

स्पर्श : क वर्ग – क, ख, ग, घ, (ङ) च वर्ग – च, छ, ज, झ, (ञ) ट वर्ग – ट्, ठ, ड्, ढ्, (ण) त वर्ग – त्, थ्, द्, ध्, (न) प वर्ग – प, फ, ब, भ, (म्) अन्तस्थ – य, र, ल, व् ऊष्म – श, ष, स, ह संयुक्ताक्षर – इसके अतिरिक्त हिन्दी में तीन संयुक्त व्यंजन भी होते हैंक्ष – क् +

ज्ञ – ज् + ञ् हिन्दी वर्णमाला में 11 स्वर और 33 व्यंजन अर्थात् कुल 44 वर्ण हैं तथा तीन संयुक्ताक्षर

वर्णों के उच्चारण स्थान – भाषा को शुद्ध रूप में बोलने और समझने के लिए विभिन्न वर्गों के उच्चारण स्थानों को जानना आवश्यक है। वर्ण

उच्चारण स्थान वर्ण ध्वनि का नाम 1. अ, आ, क वर्ग

कंठ कोमल तालु कंठ्य और विसर्ग

तालु मूर्द्धा

MINo oooo

इ, ई, च वर्ग, य, श

तालव्य ऋ, ट वर्ग, र, ष

मूर्द्धन्य लु, त वर्ग, ल, स

दन्त

दन्त्य उ, ऊ, प वर्ग

ओष्ठ

ओष्ठ्य अं, ङ, ञ, ण, न्, म् नासिका

नासिक्य

कंठ तालु कंठ – तालव्य 8. ओ, औ

कंठ ओष्ठ

कठोष्ठ्य 9. व

दन्त ओष्ठ

दन्तोष्ठ्य 10. ह

स्वर यन्त्र अलिजिह्वा अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण में वर्ण विशेष का उच्चारण स्थान के साथ-साथ नासिका का भी योग रहता है। अतः अनुनासिक वर्गों का उच्चारण स्थान उस वर्ग का उच्चारण स्थान और नासिका होगा।

जैसे अं में कंठ और नासिका दोनों का उपयोग होता है अतः इसका उच्चारण स्थान कंठ नासिका होगा।

उच्चारण की दृष्टि से व्यंजनों को आठ भागों में बांटा जा सकता है:

  1. स्पर्शी : जिन व्यंजनों के उच्चारण में फेफड़ों से छोड़ी जाने वाली हवा वाग्यंत्र के किसी अवयव का स्पर्श करती है और फिर बाहर निकलती है। निम्नलिखित व्यंजन स्पर्शी हैं : क ख ग घ्;

ट् ट ड्द त् थ् द् ध् :

प् फ् ब् भ् 2. संघर्षी : जिन व्यंजनों के उच्चारण में दो उच्चारण अवयव इतनी निकटता पर आ जाते हैं कि बीच का मार्ग छोटा हो जाता है तब वायु उनसे घर्षण करती हुई निकलती है। ऐसे संघर्षी व्यंजन हैं

श्, ष, स्, ह्, ख, ज्, फ

  1. स्पर्श संघर्षी : जिन व्यंजनों के उच्चारण में स्पर्श का समय अपेक्षाकृत अधिक होता है और उच्चारण के बाद वाला भाग संघर्षी हो जाता है, वे स्पर्श संघर्षी कहलाते हैं – च, छ, ज्, झ्।
  2. नासिक्य : जिनके उच्चारण में हवा का प्रमुख अंश नाक से निकलता है ङ्, उ, ए, न, म्।
  3. पाश्विक : जिनके उच्चारण में जिह्वा का अगला भाग मसूड़े को छूता है और वायु पार्श्व आस-पास से निकल जाती है, वे पाश्विक हैं

जैसे – ‘ल’।

  1. प्रकम्पित : जिन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वा को दो तीन बार कंपन करना पड़ता है, वे प्रकंपित कहलाते हैं। जैसे-‘र’
  2. उत्क्षिप्त : जिनके उच्चारण में जिह्वा की नोक झटके से नीचे गिरती है तो वह उत्क्षिप्त (फेंका हुआ) ध्वनि कहलाती है। ड्, द् उत्क्षिप्त ध्वनियाँ हैं।
  3. संघर्ष हीन : जिन ध्वनियों के उच्चारण में हवा बिना किसी संघर्ष के बाहर निकल जाती है वे संघर्षहीन ध्वनियाँ कहलाती हैं। जैसे-य, व। इनके उच्चारण में स्वरों से मिलता जुलता प्रयत्न करना पड़ता है, इसलिए इन्हें अर्धस्वर भी कहते हैं।

इसके अतिरिक्त स्वर तन्त्रियों की स्थिति और कम्पन के आधार पर वर्गों को घोष और अघोष श्रेणी में भी बांटा जा सकता है।

ष : घोष का अर्थ है नाद या गूंज। जिन वर्णों का उच्चारण करते समय गूंज (स्वर तंत्र में कंपन) होती है, उन्हें घोष वर्ण कहते हैं। क वर्ग, च वर्ग आदि सभी वर्गों के अन्तिम तीन वर्ण ग, घ, ङ्, ज, झ, ञ् आदि तथा य् र् ल् व् ह घोष वर्ण कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त सभी स्वर भी घोष वर्ण होते हैं। इनकी कुल संख्या तीस है।

अघोष : इन वर्गों के उच्चारण में प्राणवायु में कम्पन नहीं होता अतः कोई गूंज न होने से ये अघोष वर्ण होते हैं। सभी वर्गों के पहले और दूसरे वर्ण क् ख् च छ श, ष, स्, आदि सभीर्णव अघोष हैं, इनकी संख्या तेरह है।

श्वास वायु के आधार पर वर्गों के दो भेद हैं : अल्पप्राण और महाप्राण ।

अल्पप्राण : जिन वर्णों के उच्चारण में श्वास वायु कम मात्रा में मुख विवर से बाहर निकलती है। क वर्ग च वर्ग आदि वर्णों का पहला, तीसरा और पाँचवाँ वर्ण (क, ग, ङ्, च्, ज, अ, ट्, ड, ण, त, द, न, प, ब, म् आदि) तथा य, र, ल, व् और सभी स्वर अल्पप्राण हैं।

महाप्राण : जिन वर्गों के उच्चारण में श्वास वाय अधिक मात्रा में मुख विवर से बाहर निकलती है, उन्हें महाप्राण ध्वनियाँ कहते हैं। प्रत्येक वर्ण का दूसरा और चौथा वर्ण (ख, घ्, छ, झ्, ठ्, द, थ्, धू, फ, भ) तथा श्, ष, स्, ह महाप्राण हैं।

अनुनासिक : अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण में नाक का सहयोग रहता है, जैसे – अँ, आँ, ईं, ॐ आदि।

देवनागरी लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण

भारतीय संविधान में हिन्दी को भारतीय संघ की राष्ट्रभाषा के साथ राजभाषा भी स्वीकार किया गया तथा उसकी लिपि के रूप में देवनागरी लिपि को मान्यता दी गई है। भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय (मानव संसाधन विकास मंत्रालय) के अन्तर्गत केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय के तत्त्वावधान में भाषाविदों, पत्रकारों, हिन्दी सेवी संस्थाओं तथा विभिन्न मन्त्रालयों के प्रतिनिधियों के सहयोग से देवनागरी लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का एक मानक रूप तैयार किया गया है। यह स्वरूप ही आधिकारिक तौर पर मान्य है अतः इसका ही प्रयोग करें। देवनागरी लिपि का निर्धारित मानक रूप :

स्वर – अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए ऐ ओ औ मात्राएँ – – ।

– 1 अनुस्वार – अं विसर्ग – अः अनुनासिकता चिह्न -*

व्यं जन – क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ (ढ), ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, श, ष, स, ह।

संयुक्त व्यंजन – क्ष, त्र, ज्ञ, श्र। हल चिह्न – (.)

गृहीत स्वर – ऑ (ॉ ) ख, ज़, फ। हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण : 1. संयुक्त वर्ण :

खड़ी पाई वाले व्यंजन : खड़ी पाई वाले व्यंजनों का संयुक्त रूप खड़ी पाई को हटाकर ही बनाया जाना चाहिए ; यथा : ख्याति, लग्न, विघ्न, कच्चा, छज्जा, नगण्य, कुत्ता, पथ्य, ध्वनि, न्यास, प्यास, डिब्बा, सभ्य, रम्य, उल्लेख, व्यास, श्लोक, राष्ट्रीय, यक्ष्मा आदि। 2. विभक्ति चिह्न :

(क) हिन्दी के विभक्ति चिह्न सभी प्रकार के संज्ञा शब्दों में प्रातिपदिक से पृथक् लिखे जाय;

जैसे – राम ने, राम को, राम से आदि तथा स्त्री ने, स्त्री को, स्त्री से आदि। सर्वनाम शब्दों में ये चिहन प्रातिपदिक के साथ मिलाकर लिखे जाय; जैसे – उसने, उसको, उससे।

(ख) सर्वनाम के साथ यदि दो विभक्ति चिह्न हों तो उनमें से पहला मिलाकर और दूसरा पृथक् लिखा जाय –

जैसे – उसके लिए, इसमें से। 3. क्रिया पद : संयुक्त क्रियाओं में सभी अंगीभूत क्रियाएँ पृथक्-पृथक् लिखी जाय; जैसे ढ़ा करता है, बढ़ते चले जा रहे हैं, आ सकता है, खाया करता है, खेला करेगा, घूमता रहेगा आदि।

  1. संयोजक चिह्न : (हाइफन) संयोजक चिह्न का विधान अर्थ की स्पष्टता के लिए किया गया है ; यथा –

(क) द्वन्द्व समास में पदों के बीच संयोजक चिह्न रखा जाए –

जैसे – दिन-रात, देख-रेख, चाल-चलन, हँसी-मजाक, लेन-देन, शिव-पार्वती-संवाद, खाना-पीना, खेलना-कूदना।

(ख) सा, जैसा आदि से पूर्व संयोजक चिह्न रखा जाए, जैसे तुम–सा, मोटा-सा, कौन-सा, कपिल-जैसा, चाकू-से तीखे।

(ग) तत्पुरुष समास में संयोजक चिह्न का प्रयोग वहीं किया जाए, जहाँ उसके बिना अर्थ के स्तर पर भ्रम होने की संभावना हो, अन्यथा नहीं; जैसे भू-तत्त्व (पृथ्वी तत्त्व)। संयोजक चिह्न न लगाने पर भूतत्त्व लिखा जाएगा और इसका अर्थ भूत होने का भाव भी लगाया जा सकता है। सामान्यतः तत्पुरुष समास में संयोजक चिह्न लगाने की आवश्यकता नहीं है, अतः शब्दों को

खा जाए, जैसे रामराज्य, राजकुमार, गंगाजल, ग्रामवासी, आत्महत्या आदि। किन्तु अ-नख (बिना नख का), अ नति (नम्रता का अभाव) अ-परस (जिसे किसी ने छुआ न हो) आदि शब्दों में संयोजक चिह्न लगाया जाना चाहिए अन्यथा अनख, अनति, अपरस शब्द बन जाएँगे।

  1. अव्यय : तक, साथ आदि अव्यय सदा पृथक् लिखे जाय;

जैसे – आपके साथ, यहाँ तक। अन्य नियम :

अंग्रेजी के जिन शब्दों में अर्द्ध विवृत ऑ ध्वनि का प्रयोग होता है, उनके शुद्ध रूप का हिन्दी

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Abhishek Dubey

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