पृथ्वी पर पहुंचने वाले सौर विकिरणों की मात्रा में परिवर्तन के लिए , सूर्य के संदर्भ में पृथ्वी की स्थिति में बदलाव भी उत्तरदायी है । यह परिवर्तन, जलवायु परिवर्तन के खगोलशास्त्रीय सिद्धांत के ही अनुसार होता है ।
वैज्ञानिक इस सिद्धांत को मिलानकोविच परिकल्पना भी कहते हैं । उल्लेखनीय है कि मिलुटिन मिलानकोविच ( Milutin Milankovitch ) सर्विया के खगोलविद् थे ।
मिलुटिन मिलानकोविच ने जलवायु परिवर्तन से संबंधित सिद्धांत दिए , जो कि पृथ्वी की लंबी अवधि की कक्षीय स्थिति से संबंधित है । इन्हीं सिद्धांतों को ही जलवायु परिवर्तन के खगोलीय सिद्धांत के रूप में मान्यता प्राप्त है ।
पृथ्वी की कक्षा की उत्केंद्रता , पृथ्वी की घूर्णन अक्ष की तिर्यकता , विषुव अयन इस सिद्धांत के अंग हैं , वहीं दूसरी ओर सौर किरणित ऊर्जा इस सिद्धांत से संबंधित नहीं है ।
उल्लेखनीय है कि जलवायु परिवर्तन पर अंतर – सरकारी पैनल ( आईपीसीसी ) , जो कि संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में गठित अंतर – सरकारी वैज्ञानिक निकाय है , के अनुसार ग्रीन हाउस ( हरित गृह ) गैसें वे हैं जो कि पृथ्वी , वातावरण तथा बादलों द्वारा उत्सर्जित ऊष्मीय अवरक्त विकिरण को अवशोषित एवं उत्सर्जित करती हैं ।
इनमें से प्रमुख हैं – कार्बन डाइऑक्साइड ( CO2 ) , जलवाष्प ( H , O ) , नाइट्रस ऑक्साइड ( N , O ) , मीथेन ( CH ) और ओजोन (O3) जो कि साधारणतः पृथ्वी के वायुमंडल में उपस्थित रहती है|
जलवायु परिवर्तन के मापन हेतु हिम तत्व ( Ice Core ) किसी ग्लेशियर या बर्फ की चादर को छेदकर प्राप्त किया गया एक बेलनाकार नमूना है ।
आइस कोर अतीत की जलवायु और वातावरण की जांच करने के लिए सबसे प्रत्यक्ष और विस्तृत अभिलेख है ,आइस कोर से जलवायु परिवर्तन का क्रायोजेनिक संकेतक प्राप्त किया जाता है ।
ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका में बड़ी मात्रा में बर्फ की चादर ( Ice Sheet ) पाई जाती है , जिनसे आइस कोर निकाला जाता है । इनसे पूर्वकाल में वातावरण में व्याप्त गैसों आदि की सभी जानकारी प्राप्त की जाती है|
उल्लेखनीय है कि जलवायु परिवर्तन कृषि को प्रभावित करने की क्षमता रखता है । तापमान बढ़ने से मिट्टी की नमी और कार्यक्षमता प्रभावित होगी, इससे मिट्टी में लवणता बढ़ेगी, जलवायु परिवर्तन से फसलों की उत्पादकता भी प्रभावित होती है।
जलवायु परिवर्तन से संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है । वन , चारागाह , कृषि भूमि , नदीय जल , भू – जल आदि संसाधनों को लेकर तनाव तथा आपदा की स्थिति प्रवसन को लेकर संघर्ष आदि के अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं , जो जलवायु परिवर्तन को सामाजिक तनाव में वृद्धि करने वाला एक प्रमुख कारक सिद्ध करते हैं ।
अनेक अध्ययन जलवायु परिवर्तन के कृषि एवं वानिकी के उत्पादन एवं उत्पादकता दोनों पर गंभीर दुष्परिणाम की पुष्टि करते हैं । भविष्य में और भी जटिल स्थिति उत्पन्न होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है ।
मौसम की चरम दशाओं की बारंबारता से कृषि क्षेत्र सर्वाधिक प्रभावित होता है । ऐसे में खाद्य सुरक्षा का प्रश्न खड़ा होता है । खाद्य असुरक्षा की स्थिति में अनावश्यक खाद्य संग्रहण तथा खाद्यान्न संसाधनों पर बलपूर्वक नियंत्रण की प्रवृत्ति का विकास होता है , जो अंततः सामाजिक तनाव को जन्म देता है । अतः खाद्य असुरक्षा भी सामाजिक तनाव का एक प्रमुख कारक है ।
ध्यातव्य है कि वैश्विक जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में समोच्च बांध , अनुपद सस्यन एवं शून्य जुताई पद्धतियां मृदा में कार्बन प्रच्छादन / संग्रहण में सहायक हैं । कार्बन प्रच्छादन का तात्पर्य कार्बन का पौधों , भूगर्भिक संरचनाओं एवं समुद्र में दीर्घकालीन संग्रहण से होता है ।
कार्बन डाइऑक्साइड के में मानवोद्भवी उत्सर्जनों के कारण आसन्न भूमंडलीय तापन के न्यूनीकरण के संदर्भ में कार्बन प्रच्छादन हेतु परिव्यक्त एवं गैर – लाभकारी कोयला संस्तर , निःशेष तेल एवं गैस भंडार तथा भूमिगत गंभीर लवणीय शैल समूह संभावित स्थान हो सकते हैं ।
वर्तमान में ( 2020 के नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार ) कार्बन डाइऑक्साइड ( CO , ) के उत्सर्जन में सर्वाधिक योगदान करने वाला देश चीन है ( विश्व के कुल CO , उत्सर्जन का लगभग 28 % ), संयुक्त राज्य अमेरिका 15 % के साथ दूसरे स्थान पर है , जबकि भारत 7 % के साथ तीसरे स्थान पर तथा रूस 5 % के साथ चौथे व जापान 3 % के साथ पांचवें स्थान पर है ।
चीन विश्व का सबसे बड़ा ग्लोबल कार्बन उत्सर्जक देश है, तो भूटान को दुनिया का शीर्ष कार्बन निगेटिव देश माना जाता है ।
एशिया पैसिफिक संघ ( एपेक ) की जनसंख्या विश्व की कुल जनसंख्या का 41 % है । ये विश्व के कुल ऊर्जा उपयोग के 48 % का उपयोग करते हैं । एपेक देशों का विश्व की कुल हरित गृह गैसों के उत्सर्जन में 48 % से अधिक का योगदान है । एपेक देश क्योटो प्रोटोकॉल का समर्थन करते हैं लेकिन इसके कई देशों ने इसका अनुमोदन नहीं किया है।