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सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलन (Social and Religious Reform Movement in Hindi)

सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलन (Social and Religious Reform Movement in Hindi)

उन्नीसवीं शताब्दी के सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलनों का भारत के आधुनिक इतिहास में विशेष स्थान है। इन आंदोलनों ने बुद्धिजीवियों और मध्यम वर्ग को सर्वाधिक प्रभावित किया। निर्धन सर्वसाधारण वर्ग इन आंदोलनों से लगभग अप्रभावित ही रहा। बुद्धिजीवी, नगरीय उच्च जातियां एवं उदार राजवाड़े इन आंदोलनों से प्रभावित थे।

राजा राममोहन राय प्रथम भारतीय थे, जिन्होंने सबसे पहले भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों के विरोध में आंदोलन चलाया। उनके नवीन विचारों के कारण ही 19वीं शताब्दी के भारत में पुनर्जागरण का उदय हुआ। राममोहन राय को ‘भारतीय पुनर्जागरण का पिता’, ‘भारतीय राष्ट्रवाद का पैगंवर’, ‘अतीत और भविष्य के मध्य सेतु’, ‘भारतीय राष्ट्रवाद का जनक’, ‘आधुनिक भारत का पिता’, ‘प्रथम आधुनिक पुरुष’ तथा ‘युगदूत’ कहा गया।

हिंदू धर्म के एकेश्वरवादी मत का प्रचार करने के लिए 1815 ई. में राजा राममोहन राय ने अपने युवा समर्थकों के सहयोग से ‘आत्मीय सभा’ की स्थापना की। 1828 ई. में उन्होंने ‘ब्रह्म सभा’ के नाम से एक नए समाज की स्थापना की, जिसे आगे चलकर ‘ब्रह्म समाज’ के नाम से जाना गया।देवेंद्रनाथ टैगोर ने राजा राममोहन के विचारों के प्रसार के लिए 1839 ई. में ‘तत्वबोधिनी सभा’ की स्थापना की।

हिंदू धर्म का पहला सुधार आंदोलन ‘ब्रह्म समाज’ था, जिस पर आधुनिक पाश्चात्य विचारधारा का बहुत प्रभाव पड़ा था। मुगल बादशाह अकबर द्वितीय (II) ने राममोहन राय को ‘राजा’ की उपाधि के साथ अपने दूत के रूप में 1830 ई. में तत्कालीन ब्रिटिश सम्राट विलियम चतुर्थ के दरबार में भेजा था। राय को इंग्लैंड में सम्राट से मुगल बादशाह अकबर द्वितीय को मिलने वाली पेंशन की मात्रा बढ़ाने पर बातचीत करनी थी।

इंग्लैंड के ब्रिस्टल में ही 27 सितंबर, 1833 को राजा राममोहन राय की मृत्यु हो गई, जहां उनकी समाधि स्थापित है। शिक्षा के क्षेत्र में राजा राममोहन राय अंग्रेजी शिक्षा के पक्षधर थे। उनके अनुसार, “एक उदारवादी पाश्चात्य शिक्षा ही अज्ञान के अंधकार से हमें निकाल सकती है और भारतीयों को देश के प्रशासन में भाग दिला सकती है।” उन्होंने मूर्ति पूजा, बाल विवाह तथा सती प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया था।

रामकृष्ण परमहंस ने इस बात पर जोर दिया था कि ईश्वर तक पहुंचने के कई मार्ग हो सकते हैं। उन्होंने उपासना के सभी रूपों में एक ही परमात्मा की आराधना करते हुए सभी धर्मों की पूजाविधियों में एक ही ईश्वर की खोज की, जिसे पाने के लिए सभी धर्मावलंबी अपनेअपने मार्ग से उस गंतव्य का ध्यान करते हैं। रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं की व्याख्या को साकार करने का श्रेय स्वामी विवेकानंद (18631902 ई.) को है। उन्होंने इस शिक्षा का साधारण भाषा में वर्णन किया।

स्वामी विवेकानंद इस नवीन हिंदू धर्म (Neo-Hinduism) के प्रचारक के रूप में उभरे। 1893 ई. में वे शिकागो गए, जहां उन्होंने ‘वर्ल्ड पार्लियामेंट ऑफ रिलीजन’ (विश्व धर्म संसद) में अपना सुप्रसिद्ध भाषण दिया। सुभाष चंद्र बोस ने उनके बारे में कहा था कि “जहां तक बंगाल का संबंध है, हम विवेकानंद को आधुनिक राष्ट्रीय आंदोलन का ‘आध्यात्मिक पिता’ कह सकते हैं। ”

रामकृष्ण मिशन की स्थापना स्वामी विवेकानंद ने 1897 ई. में की थी (1909 में सोसाइटी पंजीकरण अधिनियम के अंतर्गत इसे विधिवत औपचारिक रूप से पंजीकृत कराया गया)। रामकृष्ण मिशन का कलकत्ता के वेलूर में मुख्यालय खोला गया। मिशन का नामकरण रामकष्ण परमहंस के नाम पर हुआ था। यह उन्नीसवीं सदी का अंतिम महान धार्मिक एवं सामाजिक आंदोलन था। इसकी विशेषता है प्राच्य या पूर्वी और आधुनिक या पश्चिमी इन दोनों महान शक्तियों का समन्वय। रामकृष्ण मिशन का उद्देश्य धार्मिक एवं सामाजिक सुधार है, किंतु यह भारत की प्राचीन संस्कृति से अपनी प्रेरणा ग्रहण करता है।

यह शुद्ध वेदांत के सिद्धांत को अपना आदर्श मानता है। इसका लक्ष्य मनुष्य के भीतर की उच्चतम आध्यात्मिकता का विकास करना है, किंतु साथ ही यह हिंदू धर्म में पीछे विकसित मूर्ति पूजा जैसी चीजों की कीमत और उपयोगिता भी स्वीकार करता है। मिशन की दूसरी विशेषता हैसभी धर्मों की सच्चाई में विश्वास। स्वामी विवेकानंद कहा करते थे कि “सभी विभिन्न धार्मिक विचार एक ही मंजिल तक पहुंचने के केवल विभिन्न रास्ते हैं।”

शारदामणि मुखोपाध्याय, जिन्हें शारदा देवी के नाम से जाना जाता है, का विवाह 23 वर्षीय रामकृष्ण परमहंस से 5 वर्ष की उम्र में 1859 ई. में हुआ था। मूलशंकर (स्वामी दयानंद) का जन्म 1824 ई. में गुजरात की मोरवी रियासत (कठियावाड़ क्षेत्र) के एक ब्राह्मण कुल में हुआ था। उन्होंने 1860 ई. में मथुरा में स्वामी विरजानंद जी से वेदों के शुद्ध अर्थ तथा वैदिक धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा प्राप्त की। 1867 ई. में उन्होंने पाखंड खंडिनी पताका लहराई।

उनके विचार उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित हैं। उनकी अन्य रचनाओं में पाखंड खंडन, वेदभाष्य भूमिका, ऋग्वेद भाष्य, अद्वैत मत खंडन, पंच महायज्ञ विधि तथा वल्लभाचार्य मत खंडन प्रमुख हैं। स्वामी दयानंद ने कहा था, “अच्छा शासन स्वशासन का स्थानापन्न नहीं है।” दयानंद सरस्वती (मूलशंकर) ने अप्रैल, 1875 में बंबई में आर्य समाज की स्थापना की, जिसका मुख्य उद्देश्य प्राचीन वैदिक धर्म की शुद्ध रूप से पुनः स्थापना करना था।

आर्य समाज आंदोलन का प्रसार प्रायः पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। 1877 ई. में आर्य समाज का मुख्यालय लाहौर में स्थापित किया गया, जिसके उपरांत आर्य समाज का अधिक प्रचार हुआ। शुद्ध वैदिक परंपरा में विश्वास के चलते स्वामी जी ने ‘पुनः वेदों की ओर चलो’ का नारा दिया। स्वामी दयानंद का उद्देश्य था कि भारत को धार्मिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय रूप से एक कर दिया जाए। धार्मिक क्षेत्र में वह मूर्ति पूजा, बहुदेववाद, अवतारवाद, पशुबलि, श्रद्धा, तंत्र-मंत्र तथा झूठे कर्मकांडों को स्वीकार नहीं करते थे।

स्वामी दयानंद को उनके धार्मिक सुधार प्रयासों के कारण ‘भारत का मार्टिन लूथर किंग’ कहा जाता है। आर्य समाज के नियम तथा सिद्धांत सबसे पहले बंबई में गठित किए गए। 1892-93 ई. में आर्य समाज दो गुटों में बंट गया। एक गुट पाश्चात्य शिक्षा का समर्थक था, जबकि दूसरा गुट पाश्चात्य शिक्षा का विरोधी। पाश्चात्य शिक्षा के विरोधियों में स्वामी श्रद्धानंद, लेखराज और मुंशीराम प्रमुख थे।

इन लोगों ने वर्ष 1902 में ‘गुरुकुल’ की स्थापना की। पाश्चात्य शिक्षा के समर्थकों में लाला लाजपत राय तथा हंसराज प्रमुख थे। इन लोगों ने ‘दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज’ की स्थापना की। सर्वप्रथम स्वामी दयानंद सरस्वती ने “स्वराज्य’ शब्द का प्रयोग किया और हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया। प्रार्थना समाज की स्थापना 1867 ई. में बंबई में आचार्य केशवचंद्र सेन की प्रेरणा से आत्माराम पांडुरंग द्वारा की गई थी।

महादेव गोविंद रानाडे इस संस्था से 1869 ई. में जुड़े। इस संस्था का प्रमुख उद्देश्य जाति प्रथा का विरोध, स्त्रीपुरुष की विवाह की आयु में वृद्धि, विधवा विवाह एवं स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देना था। रानाडे का उल्लेख “पश्चिमी भारत में सांस्कृतिक पुनर्जागरण के अग्रदूत” के रूप में किया जाता है। ‘देव समाज’ की स्थापना 1887 ई. में शिवनारायण अग्निहोत्री ने लाहौर में की थी। ये ब्रह्म समाज के पूर्व अनुयायी थे। इस समाज के उपदेशों को ‘देवशास्त्र’ नामक एक पुस्तक में संकलित किया गया है।

1873 ई. में सत्यशोधक समाज की स्थापना ज्योतिबा फुले ने की थी। इनका जन्म 1827 ई. में एक माली के घर हुआ था। इन्होंने शक्तिशाली गैर-ब्राह्मण आंदोलन का संचालन किया। इन्होंने अपनी पुस्तक ‘गुलामगीरी’ एवं अपने संगठन ‘सत्यशोधक समाज’ के द्वारा पाखंडी ब्राह्मणों एवं उनके अवसरवादी धर्म ग्रंथों से निम्न जातियों की रक्षा की आवश्यकता पर बल दिया।

राजा राधाकांत देव ने 1830 ई.में बंगाल में ‘धर्म सभा’ की स्थापना कर सामाजिक-धार्मिक सुधारों का विरोध किया और रूढ़िवादिता का समर्थन किया। राधास्वामी सत्संग आंदोलन की स्थापना 1861 ई. में आगरा के एक महाजन या बैंकर तुलसीराम, जो शिवदयाल साहब या स्वामी जी महाराज के नाम से लोकप्रिय थे, ने की। राधास्वामी मत को मानने वाले लोग एक ही परमेश्वर, गुरु की महत्ता, संतों का साथ (सत्संग) तथा साधारण सामाजिक जीवन में विश्वास करते थे।

महाराष्ट्र के समाज सुधारक गोपाल हरि देशमुख (1823-92 ई.) “लोकहितवादी’ के रूप में प्रख्यात थे। पेशे की दृष्टि से न्यायाधीश गोपाल हरि 1880 ई. में गवर्नर जनरल की काउंसिल के सदस्य भी रहे। महाराष्ट्र में विधवा पुनर्विवाह हेतु प्रथम अभियान का नेतृत्व विष्णु परशुराम शास्त्री पंडित ने किया। उन्होंने 1850 ई. में ‘विडो रिमैरिज एसोसिएशन’ की स्थापना की थी और साथ ही विधवा-पुनर्विवाह आंदोलन भी चलाया था।

19वीं सदी के महानतम पारसी समाज सुधारक बहरामजी एम. मालाबारी थे। उनका जन्म बड़ौदा के पारसी परिवार में 1853 ई. में हुआ था। इन्होंने बाल विवाह के खिलाफ तथा विधवा विवाह के समर्थन में एक परिपत्र का संपादन किया था। 1891 का ‘सम्मति आय अधिनियम’ (Age of Consent Act) इन्हीं के प्रयासों से पारित हुआ था। भारतीय राष्ट्रीय सामाजिक सम्मेलन’ की स्थापना 1887 ई. में एम.जी. रानाडे एवं रघुनाथ राव द्वारा की गई थी।

इस सम्मेलन का प्रमुख उद्देश्य बहु विवाह, वाल विवाह एवं कुलीनवाद जैसी कुप्रथाओं का समापन करना था। 1850 ई. में जाति अक्षमता कानून (कास्ट डिजेबिलिटीज एक्ट) द्वारा हिंदुत्व से धर्मांतरित व्यक्तियों के नागरिक अधिकारों की रक्षा का प्रावधान किया गया। 1856 ई. के हिंद विधवा पुनर्विवाह कानन (हिंद विडो रिमैरिज एक्ट) द्वारा विधवाओं के पुनर्विवाह को कानून संगत बनाया गया। सती निषेध रेग्युलेशन लॉर्ड विलियम बैंटिक के समय 1829 ई. में बनाया गया था।

कलकत्ता के संस्कृत कॉलेज के आचार्य ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह के लिए अथक संघर्ष किया। इन्होंने यह प्रमाणित करने का प्रयास किया कि वेदों में विधवा विवाह को मान्यता दी गई है। इनके प्रयासों के फलस्वरूप 26 जुलाई, 1856 को ‘हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम’ पारित हुआ।

राजा राममोहन राय ने सती प्रथा का प्रबल विरोध किया था। यह उन्हीं के प्रयासों का फल था कि 1829 के 17वें नियम के अनुसार, विधवाओं को जीवित जलाना बंद कर दिया गया और न्यायालयों को आज्ञा दी गई कि वे ऐसे मामलों में सदोष मानव हत्या के लिए मुकदमा चलाएं और दोषियों को दंडित करें। लॉर्ड एलनबरो के काल में 1843 के एक्ट V ने गुलामी (दासता) को गैर-कानूनी बना दिया।

केशवचंद्र सेन ने 1872 के नेटिव मैरिज एक्ट को पारित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस एक्ट से लड़कियों के लिए विवाह की न्यूनतम आयु 14 वर्ष तथा लड़कों के लिए न्यूनतम 18 वर्ष निर्धारित की गई थी। इसे ब्रह्म विवाह अधिनियम भी कहा जाता है। वर्ष 1929 में अजमेर निवासी एवं न्यायाधीश डॉ. हरविलास शारदा के प्रयत्नों से एक बाल विवाह निषेध कानून बन पाया। उन्हीं के नाम पर ही इसे शारदा अधिनियम (शारदा एक्ट) कहा गया।

इस अधिनियम के द्वारा लड़कियों के विवाह की न्यूनतम सीमा 14 वर्ष एवं लड़कों की 18 वर्ष निर्धारित की गई। थियोसोफिकल सोसाइटी की स्थापना एक रूसी महिला मैडम एच.पी. ब्लावेट्स्की, अमेरिकी सैनिक अधिकारी कर्नल अल्कॉट, विलियम क्वॉन जज एवं अन्य द्वारा 1875 ई. में न्यूयॉर्क में की गई थी। इस सोसाइटी के संस्थापक 1882 ई. में मद्रास के पास अड्यार नामक स्थान पर सोसाइटी का मुख्यालय स्थापित किया, जो बाद में इसका अंतरराष्ट्रीय कार्यालय बना।

1889 ई. में श्रीमती एनी बेसेंट इस सोसाइटी की सदस्या बनीं तथा 1893 ई. में भारत आकर उन्होंने सोसाइटी के लिए सर्वाधिक सक्रिय भूमिका निभायी। श्रीमती एनी बेसेंट ने प्राचीन हिंदू धर्म को विश्व का अत्यधिक गूढ़ एवं आध्यात्मिक धर्म माना। थियोसोफी या ब्रह्म विद्या हिंदू धर्म के आध्यात्मिक दर्शन और कर्म सिद्धांत तथा आत्मा के पुनर्जन्म के सिद्धांत का समर्थन करती थी। इसी कारण एनी बेसेंट भारतीय लोगों को इससे जोड़ सकी, जो इसकी सफलता का मुख्य कारण था।

रानाडे के शिष्य गोपाल कृष्ण गोखले ने वर्ष 1905 में ‘सर्वेट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी’ की स्थापना की। गोपाल कृष्ण गोखले ने कांग्रेस के इक्कीसवें अधिवेशन (जो 1905 में बनारस में हुआ था) की अध्यक्षता की थी। गोखले महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु थे। वर्ष 1910 के उपरांत ज्योतिबा फुले के विचारों से प्रेरित होकर मुकुंदराव पाटिल एवं शंकरराव जाधव ने एक ब्राह्मण विरोधी एवं प्रबल कांग्रेस-विरोधी ‘बहजन समाज’ की स्थापना की। नाडारों द्वारा मंदिरों में प्रवेश के अधिकार की मांग की प्रस्तुति के कारण 1899 ई. में तिरुनेलवेली में भयंकर दंगे हुए थे

छुआछुत उन्मूलन के लिए आयोजित एक सम्मेलन में तिलक ने कहा था, “यदि भगवान भी छुआछूत को बरदाश्त करे, तो मैं भगवान को नहीं मानूंगा।” में तिलक को लोग प्रायः “लोकमान्य’ और भारत का “वेताज बादशाह’ कहते थे। दार-उल-उलुम देववंद के संस्थापक सदस्यों में मौलाना हुसैन अहमद भी थे। दार-उल-उलूम देवबंद की स्थापना 1866 ई. में हुई थी।

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Abhishek Dubey

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