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पारिस्थितिकी असंतुलन, खाद्य श्रृंखला, उर्जा का प्रवाह और जैविक आवर्धन (Ecological Imbalance, Food Chain, Energy Flow and Biological Magnification)

 पारिस्थितिक तंत्र सामान्यतया संतुलित अवस्था में अपनी विभिन्न गतिविधियों को संचालित करता रहता है। परंतु विभिन्न कारणों यथा वनोन्मूलन, प्रदूषण इत्यादि से पारिस्थितिक असंतुलन की समस्या उत्पन्न हो जाती है। पारिस्थितिक असंतुलन के मूल कारणों में वनोन्मूलन (लकड़ी काटना) है। वनोन्मूलन के कई कारण हैं, जिन्हें अधोलिखित आरेख द्वारा समझा जा सकता है।

भारत में पारिस्थितिक असंतुलन के मूल कारणों में वनोन्मूलन है, जबकि मरुस्थलीकरण, बाढ़, अकाल और वर्षा की परिवर्तनीयता इसके गौण कारणों में है। वन्यजीव संरक्षण, वन रोपण, पदार्थों का पुनर्चक्रण एवं पर्यावरण में व्याप्त प्रदूषण का निवारण पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में मददगार होता है।

ध्यातव्य है कि जल प्रबंधन, वनरोपण तथा वन्यजीव सुरक्षा से पारिस्थितिकी संतुलन सकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। जबकि औद्योगिक प्रबंधन से पारिस्थितिकी संतुलन का कोई संबंध नहीं है। वनों को काटना भी पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने में मदद नहीं करता।

वहन क्षमता व पारिस्थितिक कर्मता

एक संतुलित पारिस्थितिकी तंत्र में जीवों की वृद्धि भी संतुलित होती है। यह संतुलित वृद्धि किसी पारितंत्र की वहन क्षमता के अनुरूप होती है। * वहन क्षमता अथवा जनसंख्या वहन क्षमता (Carrying Capacity) किसी भौगोलिक क्षेत्र के पारितंत्र में किसी जीवधारी प्रजाति की उस अधिकतम जनसंख्या के रूप में परिभाषित की जाती है, जिसे उस पारितंत्र के संसाधन पोषण प्रदान कर सकते हैं।

वहन क्षमता से अधिक जनसंख्या वृद्धि उस पारितंत्र पर दबाव डालेगी और अत्यधिक वृद्धि उस तंत्र के विफल हो जाने का कारण भी बन सकती है। ध्यातव्य है कि प्रजनन या संख्या वृद्धि क्षमता किसी भी जीवधारी का अंतर्निहित गुण होता है।

बिना पर्यावरण की रुकावट के प्रजनन की यह क्षमता जैविक विभव (Biotic Potential) कहलाती है; जिसे संकेताक्षर ” से दर्शाया जाता है। * परंतु पर्यावरणीय प्रतिरोध बढ़ने के साथ वृद्धि रुक जाती है। यह वृद्धि एक निश्चित ऊपरी सीमा तक ही होती है। * इसी ऊपरी सीमा को वहन क्षमता कहते हैं।

ध्यातव्य है कि पारिस्थितिक कर्मता पद द्वारा केवल किसी जीव द्वारा ग्रहण किए गए स्थान का ही नहीं, बल्कि जीवों के समुदाय में उसकी कार्यात्मक भूमिका का भी वर्णन किया जा सकता है।

खाद्य श्रृंखला नोट्स

किसी पारिस्थितिक तंत्र के संचालन हेतु ऊर्जा की आवश्यकता होती है। * जीवों में यह ऊर्जा खाद्य पदार्थों के माध्यम से पहुंचती है। * ऐसे पदार्थ जिनके ऑक्सीकरण के पश्चात जीवधारियों को ऊर्जा प्राप्त होती है, खाद्य (Food) कहे जाते हैं। पौधे अपना खाद्य स्वयं निर्मित करते हैं। * जबकि जंतु खाद्य के लिए पौधों पर निर्भर करते हैं।

खाद्य श्रृंखला विभिन्न प्रकार के जीवधारियों का एक ऐसा क्रम है, जिससे किसी पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा का प्रवाह होता है। * ध्यातव्य है कि जीवों द्वारा ऊर्जा का यह प्रवाह एकदिशीय (Unidirectional) होता है। * उदाहरणतया किसी घास स्थल पारितंत्र की खाद्य श्रृंखला में विभिन्न घटकों का सही क्रम इस प्रकार है

घास(उत्पादक) → टिड्डा(प्राथमिक उपभोक्ता)→ मेंढ़क (द्वितीयक उपभोक्ता)→ सर्प(तृतीयक उपभोक्ता)

* घास, बकरी तथा मानव आहार श्रृंखला का निर्माण करते हैं।

घास(स्वपोषी)बकरी(शाकाहारी उपभोक्ता)मनुष्य(सर्वाहारी उपभोक्ता)

ध्यातव्य है कि जीवीय संघटक (Biotic Components) ऐसी जीवित वस्तुएं हैं, जो एक पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करती हैं। जीवित संघटकों में सामान्यतः शामिल होते हैं :

  1. उत्पादक :- जैसे- पेड़-पौधे, शैवाल आदि।
  2. उपभोक्ता :-जैसे- जानवर, मनुष्य आदि।
  3. अपघटक :- जैसे- कवक एवं जीवाणु।

अतः तंत्र में ऊर्जा का अंतरण क्रमबद्ध स्तरों की एक श्रृंखला में होता है, जिसे ‘खाद्य शृंखला’ कहते हैं। पारिस्थितिकी तंत्र के विभिन्न जीव (पेड़-पौधे एवं जंतु) अपनी पोषण संबंधी आवश्यकताओं के अनुसार एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं।

पारितंत्र के जैविक घटकों में से हरे पौधे उत्पादक घटक के अंतर्गत आते हैं। हरे पौधे सूर्य के प्रकाश का उपयोग करके प्रकाश संश्लेषण की विधि द्वारा अपना आहार स्वयं निर्मित करते हैं। इस प्रकार के पौधों को “स्वपोषित’ (Autotrophs) भी कहा जाता है। हरे पौधे मानव सहित समस्त जंतुओं के लिए प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से आहार एवं ऊर्जा की आपूर्ति के प्रमुख स्रोत हैं।

वे सभी पौधे जो कि प्रकाश संश्लेषण के द्वारा भोजन का निर्माण करते हैं, प्राथमिक पोषक या उत्पादक कहलाते हैं। पौधे प्रकाश संश्लेषण हरे रंग के लवक (क्लोरोफिल) की सहायता से करते हैं। क्लोरोफिल के कारण ही पौधे हरे रंग के दिखते हैं। समुद्री खाद्य श्रृंखला में फाइटोप्लैन्कटॉन्स मुख्य प्राथमिक उत्पादक होते हैं।

ये प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया द्वारा ऊर्जा प्राप्त करते हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में उपस्थित ऑक्सीजन की अधिकतर मात्रा के लिए फाइटोप्लैन्कटॉन्स ही उत्तरदायी हैं। विभिन्न पारिस्थितिक तंत्र के प्राथमिक उत्पादक इस प्रकार हैं

प्राथमिक उत्पादक, पारिस्थितिक तंत्र में पादपप्लवक (Phytoplankton),गहरे जलीय स्रोत या समुद्र

  1. जड़युक्त पौधे
  2. छिछले पानी में

विभिन्न प्रकार की घासें एवं जंगली शाकीय पौधे

  1. घास स्थल (Grassland)
  2. फसल के पौध
  3. फसल भूमि (Cropland)

विभिन्न पारिस्थितिक तंत्र के प्राथमिक उत्पादक किसी खाद्य शाकाहारी प्राणी ही प्राथमिक उपभोक्ता की श्रेणी में आते हैं। उदाहरणतया हिरण शाकाहारी प्राणी है, अतः यह प्राथमिक उपभोक्ता है। चींटी अपघटक (Decomposer) तथा प्राथमिक उपभोक्ता दोनों की श्रेणी में आती है। यह पौधों को खाकर सेलुलोज़ से ऊर्जा प्राप्त करती है। बाघ मांसाहारी प्राणी है तथा लोमड़ी सर्वाहारी है, ये दोनों प्राथमिक उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं आते।

अतः वे जीवधारी जो अपना भोजन प्राथमिक उत्पादकों (हरे पौधों) से प्राप्त करते हैं, प्राथमिक उपभोक्ता कहलाते हैं। इन शाकाहारी प्राणियों को खाने वाले जीवधारियों को मांसाहारी कहा जाता है, अतः उपभोक्ता परपोषी जीव होता है।

ध्यातव्य है कि शाक-सब्जियों का सेवन करने पर मनुष्य प्राथमिक उपभोक्ता, जबकि मांसभक्षी होने पर द्वितीयक उपभोक्ता की श्रेणी में आएगा। अपघटक वे जीव होते हैं, जो अपक्षय या सड़न की प्रक्रिया को तेज करते हैं जिससे पोषक तत्वों का पनः चक्रीकरण हो सके। अपघटक निर्जीव कार्बनिक तत्वों को अकार्बनिक यौगिकों में तोड़ते हैं। सूक्ष्म जीवों की एक विस्तृत किस्म जैसे फफूंद, जीवाणु, गोलकृमि, प्रोटोजोआ और केंचुआ अपघटकों की भूमिका अदा करते हैं। अपघटक पोषण के लिए मृत कार्बनिक पदार्थ या अपरद पर निर्भर करते हैं।

अधिकांश अपघटक, उपभोक्ता की तरह अपना भोजन निगलते नहीं हैं, बल्कि वे अपने शरीर से, मृत या मृतप्राय जीवधारियों (पौधों व जंतुओं) पर विभिन्न प्रकार के एंजाइम का स्रावण करते हैं। इससे विखंडित होकर मृदा में सामान्य अकार्बनिक पदार्थ का उत्सर्जन हो जाता है तथा इन्हें पौधे मृदा से प्राप्त करते हैं। इस प्रकार कार्बन, नाइट्रोजन, फास्फोरस व अन्य अकार्बनिक तत्वों का पारितंत्र में पुनः चक्रीकरण हो जाता है।

* स्थलीय पारितंत्र की तरह ही समुद्री पारितंत्र में भी खाद्य/आहार श्रृंखला पाई जाती है। * एक साधारण समुद्री आहार श्रृंखला का सही क्रम है

  1. डायटम (स्वपोषी)
  2. क्रस्टेशियाई (शाकाहारी उपभोक्ता)
  3. हेरिंग (मांसाहारी उपभोक्ता)

उल्लेखनीय है कि तितलियां कई पुष्पीय पौधों के परागण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, अतः इनकी संख्या में गिरावट से पौधों के परागण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। तितलियां खाद्य श्रृंखला में निम्न सदस्य (Lower Member) के रूप में कार्य करती हैं। यह बरे, मकड़ी, पक्षी, मेंढक, सर्प इत्यादि का भोजन हैं। अतः तितलियों की संख्या में गिरावट से इस खाद्य श्रृंखला पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

उर्जा का प्रवाह

पारिस्थितिकी निकाय में ऊर्जा का प्राथमिक स्रोत सौर ऊर्जा है। जैवमंडलीय पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा का प्रवाह एक दिशीय होता है। जैवमंडलीय पारिस्थितिकी तंत्र धरती पर स्थापित सभी पारिस्थितिकी प्रणालियों का योग है। ऊर्जा का प्रवाह अजैविक प्रणाली से जैविक प्रणाली की दिशा में होता है।

ऊष्मागतिकी के पहले नियम के अनुसार, ऊर्जा का न तो सृजन हो सकता है और न ही उसे नष्ट किया जा सकता है। यह एक स्वरूप से दूसरे स्वरूप में परिवर्तित हो सकती है। दूसरे नियम के अनुसार, जब ऊर्जा एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित होती है, तो उसका कुछ ह्रास होता है। अत: उत्पाद में अपेक्षाकृत कम ऊर्जा होती है। ऊर्जा उत्पादक से प्राथमिक उपभोक्ता की तरफ. प्राथमिक से द्वितीयक उपभोक्ता की तरफ तथा द्वितीयक से तृतीयक उपभोक्ता की तरफ प्रवाहित होती है।

हर पोषण स्तर पर उपलब्ध ऊर्जा की मात्रा घटती जाती है। उल्लेखनीय है कि स्वपोषी जीवों द्वारा ग्रहण की गई ऊर्जा पुनः सौर ऊर्जा में परिवर्तित नहीं होती तथा शाकाहारियों को स्थानांतरित की गई ऊर्जा को स्वपोषी जीव नहीं प्राप्त कर सकते हैं।अतः ऊर्जा का प्रवाह एक दिशीय होता है।

ध्यातव्य है कि विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों में उत्पादकों की सकल उत्पादकता का लगभग 10 प्रतिशत भाग ही शाकाहारियों द्वारा स्वांगीकृत हो पाता है। लिंडेमान (Lindeman, 1942) ने 10 प्रतिशत का नियम (Ten percent Law) दिया है। इसके अनुसार, शाकाहारी जंतु, उत्पादक की शुद्ध प्राथमिक उत्पादकता (Net primary productivity) का 10 प्रतिशत भाग अपने में संचित करता है

जब कोई मांसाहारी जंतु इस शाकाहारी जंतु को खाता है, तो वह शाकाहारी की 10 प्रतिशत ऊर्जा संचित करता है। इस प्रकार खाद्य कड़ी के प्रत्येक स्तर (प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं सर्वश्रेष्ठ श्रेणी के स्तर) पर उपभोक्ता केवल 10% पोषण स्तर पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) की आहार श्रृंखला में सामान्यतः तीन से चार पोषण स्तर होते हैं। ये इस प्रकार हैंपोषण स्तर एक (आधार पोषण स्तर)-स्वपोषित जीव, प्राथमिक उत्पादक पोषण स्तर दो-प्राथमिक उपभोक्ता पोषण स्तर तीन-द्वितीयक उपभोक्ता पोषण स्तर चार-सर्वाहारी/अंतिम उपभोक्ता (उच्चतम पोषण स्तर) अपघटक (Decomposers) उपर्युक्त सभी पोषण स्तरों से आहार ग्रहण करते हैं।

पिरामिड 

पारिस्थितिकीय तंत्र के विभिन्न स्तरों के प्रति इकाई क्षेत्र में उपस्थित जीवभार के रेखाचित्रीय निरूपण को ‘जीवभार का पिरामिड’ कहते हैं। स्थलीय पारिस्थितिकीय तंत्र में जीवभार का पिरामिड सीधा (Upright) होता है, जबकि जलीय पारिस्थितिकीय तंत्र (जैसे तालाब) में जीवभार का पिरामिड उलट जाता है अर्थात उल्टा (Inverted) होता है।

जैव वानिकी एवं जैविक आवर्धन

जैव वानिकी अर्थात बायोनॉमिक्स शब्द Bio तथा nomics शब्दों से मिलकर बना है। Bio शब्द का तात्पर्य जीव या जीवन से है, जबकि nomics ग्रीक शब्द nomos से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ है, नियम (law)।

इस प्रकार बायोनॉमिक्स शब्द का शाब्दिक अर्थ जीवन के नियम समीचीन प्रतीत होता है। यह पारिस्थितिकी का पर्याय है। साथ ही, यह प्राकतिक तंत्र के मूल्यों पर बल देता है, जो मानव तंत्रों को प्रभावित करते हैं।

जैविक आवर्धन 

ध्यातव्य है कि जब कुछ प्रदूषक आहार श्रृंखला के साथ सांद्रता में बढ़ते जाते हैं और ऊतकों में जमा हो जाते हैं, तो इस घटना को जैविक आवर्धन (Biomagnification) कहते हैं। DDT जैसे प्रदूषक जैव अनिम्नीकरणीय (Non biodegradable) होते हैं। इनका एक बार अवशोषण होने के पश्चात उत्सर्जन द्वारा बाहर निकलना लगभग असंभव हो जाता है।

DDT एक ऐसा रसायन है, जिसे जैविक रूप से नष्ट नहीं किया जा सकता। खाद्य श्रृंखला में DDT का सांद्रण प्रथम स्तर पर सबसे कम, द्वितीय स्तर पर उससे अधिक एवं तृतीय स्तर पर सबसे अधिक होगा। घास स्थल पारितंत्र में चूंकि सांप एक तृतीयक उपभोक्ता है, अतः DDT का सांद्रण सांप में सबसे अधिक होगा। ये सामान्यतः जीवों के वसा वाले ऊतकों में जमा होते हैं। उल्लेखनीय है कि D.D.T. एक कीटनाशक है।

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Abhishek Dubey

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