सुकवि जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ आधुनिक ब्रजभाषा के अन्तिम प्रतिनिधि कवि थे। रत्नाकर जी का जन्म भाद्रपद सुदी 5, संवत् 1923 वि० (सन् 1866 ई०) को काशी के एक प्रसिद्ध अग्रवाल कुल में हुआ। इनके पिता का नाम श्री पुरुषोत्तमदास था, जो अरबी-फारसी के अच्छे विद्वान और । हिन्दी-काव्य के प्रेमी थे।
अपने पिता के माध्यम से रत्नाकर जी, भारतेन्दु जी के सम्पर्क में आये। रत्नाकर जी को बाल्यावस्था से ही कविता से प्रेम था। इनकी एक रचना से प्रसन्न होकर भारतेन्दु जी ने यह भविष्यवाणी की थी कि ‘यह लड़का एक दिन अच्छा कवि बनेगा’, जो अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई। रत्नाकर जी की शिक्षा काशी में हुई।
प्रारम्भ में उन्हें फारसी पढ़ायी गयी, बाद में उन्होंने हिन्दी का अध्ययन किया। सन् 1891 ई० में उन्होंने क्वीन्स कॉलेज से बी० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् इन्होंने दो वर्ष तक अवागढ़ में ‘कोषाध्यक्ष के पद पर कार्य किया। फिर ये अयोध्या-नरेश के प्राइवेट सेक्रेटरी हो गये। सन् 1903 ई० में अयोध्या-नरेश की मृत्यु के पश्चात् वहाँ की महारानी ने सक्रटरी बना लिया। 21 जून, 1932 ई० (संवत् 1989 वि०) 4) को हरिद्वार में इनका देहान्त हो गया।
साहित्यिक सेवाएँ राजसेवा से मुक्ति पाकर रत्नाकर जी ने अपना सारा य समय साहित्य-सेवा में लगा दिया। और ब्रजभाषा में रचना करना आरम्भ किया। ल रत्नाकर जी की सर्वप्रथम काव्यकृति ‘हिंडोला’ सन् 1894 ई० में तक के ‘गंगावतरण’ सन् 1923 ई० में समाप्त हुआ।
इसके अतिरिक्त रत्नाकर जी ने ‘साहित्य-सुधा-निधि’ नामक मासिक पत्र का सम्पादन प्रारम्भ किया था तथा अनेक ग्रन्थों का सम्पादन भी किया। नाग प्रचारिणी सभा के कार्यों में रत्नाकर जी का पूरा सहयोग रहता। ये सन् 19202 थ में ओरियण्टल कॉन्फ्रेन्स के हिन्दी विभाग के सभापति हए और सन् 19305 कर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के बीसवें अधिवेशन (कलकत्ता अधिवेशन) । सभापति चुने गये।
रचनाएँ-
1. मौलिक रचनाएँ गंगावतरण, हरिश्चन्द्र, उद्धवशतक, समालोचनादर्श, शृंगार लहरी, विष्णु लहरी, रत्लाष्टक, वीराष्टक।
2 सम्पादित रचनाएँ हम्मीर हठ, तरंगिणी, कण्ठाभरण, बिहारी सतसई आदि।
3. टीका ग्रन्थ ‘बिहारी सतसई।
साहित्य में स्थान रत्नाकर जी के काव्य में सरसता, स्वाभाविकता और कलात्मकता का पूर्ण परिपाक हुआ है। यही कारण है कि समग्र आलोचकों ने इन्हें आधुनिक ब्रजभाषा का प्रतिनिधि कवि कहा है। वस्तुत: ये इस काल के ब्रजभाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं।
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