कबीरदासस जीवन-परिचय सन्त (जानाश्रयी निर्गण) काव्यधारा के प्रवर्तक कबीर दास का जन्म संवत् 1456(सन् 1399) की ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा, सोमवार को हु था। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित दोहा प्रसिद्ध है|
चौदह सौ पचपन साल गये, चन्द्रवार एक ठाठ ठये। जेठ सुदी बरसायत को, पूरनमासी प्रगट भये ||
(कबीर-चरित-बोध) एक जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म हिन्दू-परिवार में हुआ था। कहते हैं कि एक विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे, जिसने इन्हें लोक-लाज के भय से काशी लहरतारा नामक स्थान पर तालाब के किनारे छोड़ दिया था,
जहाँ से नीरू नामद एक जुलाहा एवं उसकी पत्नी नीमा नि:सन्तान होने के कारण इन्हें उठा लाये कबीर के जन्म स्थान के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद हैं, परन्तु अधिकत विद्वान् इनका जन्म काशी में ही मानते हैं, जिसकी पुष्टि स्वयं कबीर का य कथन भी करता है काशी में परगट भये, हैं रामानन्द चेताये।
इससे इनवे गुरु का नाम भी पता चलता है कि प्रसिद्ध वैष्णव सन्त आचार्य रामानन्द र इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। गुरुमन्त्र के रूप में इन्हें ‘राम’ नाम मिला, जो इनकी समा भावी साधना का आधार बना। कबीर की पत्नी का नाम लोई था, जिससे इनके कमाल नामक पुत्र और कमाली नामक पुत्री उत्पन्न हुई।
कबीर बड़े निर्भीक और मस्तमौला स्वभाव के व्यापक देशाटन एवं अनेक साधु-सन्तों के सम्पर्क में आते रहने के कारण विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों का ज्ञान प्राप्त हो गया था। ये बड़े सारग्राही एक माशाली थे। कबीर की दढ मान्यता थी कि मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार तमिलती हे, स्थान-विशेष के प्रभाव से नहीं।
अपनी इसी मान्यता को सिद्ध कालए अन्त समय में ये मगहर चले गये; क्योंकि लोगों की मान्यता थी कि म मरने वाले को मक्ति मिलती है. किन्तु मगहर में मरने वाले को नरक। अधिकतर विद्वानों ने माना है कि कबीर की मृत्यु संवत् 1575 (सन् 1519) में इरा इसके समर्थन में निम्नलिखित उक्ति प्रसिद्ध है
सवत् पंद्रह सौ पछत्तरा, कियो मगहर को गौन । माघे सुदी एकादशी, रलौ पौन में पौन ।।
कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे. किन्त ये बहश्रत हान क उच्च कोटि की प्रतिभा से सम्पन्न थे। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी साहित्यिक सेवा साथ-साथ उच्च कोटि का कवि माना है यह भी स्पष्ट कहा है कि, “कविता करना कबीर का लक्ष्य नहीं था, कवितात उन्हें सेंत-मेंत में मिली वस्तु थी, उनका लक्ष्य लोकहित था।” इस दृष्टि से उनके काव्य में उनके दो रूप दिखाई पड़ते हैं-
(1) सुधारक रूप तथा
(2) साधव (या भक्त) रूप।
उनके बाद वाले रूप में ही उनके सच्चे कवित्व के दर्शन हो हैं। सुधारकारूप त्या भक्त रूप
(1) कबीर का सुधारक रूप कबीरदास के समय में हिन्दुओं मुसलमानों में कटुता चरम सीमा पर थी। कबीर ने इन दोनों को पास लान चाहा। इसके लिए उन्होंने सामाजिक और धार्मिक दोनों स्तरों पर प्रयार किया।
(2) कबीर का साधक (या भक्त) रूप सुधारक रूप में यदि कबीर तर्कशक्ति और बुद्धि की प्रखरता देखने को मिलती है तो साधक रूप उनके भावुक हृदय से मार्मिक साक्षात्कार होता है।
कबीर के अनुसा मानव-जीवन की सार्थकता ईश्वर-दर्शन में है। उस ईश्वर को विभिन धर्मों के अनुयायी अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। कृतियाँ कबीर लिखना-पढ़ना नहीं जानते थे।
यह बात उन्होंने स्वयं कह मसि कागद छूयो नहीं, कलम गयो नहिं हाथ। उनके शिष्यों ने उनकी वाणियों का संग्रह ‘बीजक’ नाम से किया, जिसके ती मुख्य भाग हैं—साखी, सबद (पद), रमैनी। हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसा ‘बीजक’ का सर्वाधिक प्रामाणिक अंश ‘साखी’ है। इसके बाद ‘सबद’ औ अन्त में रमैनी’ का स्थान है।
साहित्य में स्थान कबीर के जीवन और सन्देश के सदृश ही उनकी कवित भी आडम्बरशून्य है। कविता की यह सादगी ही उसकी बड़ी शक्ति है। न जा कितने सहृदय तो उनके साधक रूप की अपेक्षा उनके कवि रूप पर मुग्ध हैं औ उन्हें हिन्दी के सिद्धहस्त महाकवियों की पंक्ति में अग्र स्थान का अधिकारी मान
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