जीवन-परिचय कविवर बिहारी का जन्म संवत् 1660( सन् 1603 ई० ) के लगभग ग्वालियर के निकट वसुआ गोविन्दपुर नामक ग्राम में हुआ था। ये चतुर्वेदी ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम केशवराय था। इनकी युवावस्था ससुराल (मथुरा) में ही बीती थी। इस जीवन में इन्हें अनेक कटु अनुभव प्राप्त हुए, जिनके सम्बन्ध में इनकी सतसई में कई दोहे मिलते हैं।
अधिक दिन तक ससुराल में रहने के कारण इनका आदर कम हो गया, अत: ये खिन्न होकर जयपुर-नरेश महाराजा जयसिंह के यहाँ चले गये। कहा जाता है कि उस समय जयसिंह अपनी नवोढ़ा रानी के प्रेम में इतने लीन थे कि राजकाज भी नहीं देखते थे। इस पर बिहारी ने निम्नलिखित दोहा लिखकर महाराजा के पास भेज दिया
नहिं परागु नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल ।
अली कली ही सौं बँध्यो, आगै कौन हवाल ।। राजा के हृदय पर इस दोहे ने जादु का-सा असर किया। वे पुन: राजकाज लेने लगे। बिहारी बडे गणज थे। उन्हें अनेक विषयों की जानकारी थी। पत्नी की मृत्यु के बाद बिहारी को वैराग्य हो गया और वे दरबार लोग वृन्दावन चले गये। वहाँ पर संवत् 1720 (सन् 1663 ई०) के आसपास इनकी मत्य हो गयी।
NumM साहित्यिक सेवाएँ बिहारी को निश्चय ही रीतिकाल का प्रतिनिधि कवि का जा सकता है; क्योंकि उनमें रीतिकालीन काव्य की सभी प्रमुख प्रवृत्तियाँ मिल हैं। रीतिकाल में एक धारा रीतिबद्ध कवियों की थी तथा दूसरी धारा रीतिमा कवियों की।
बिहारी ने रीतिकाल की बँधी-बँधाई परिपाटी के अन्तर्गत भी अपर लिये एक मध्यम मार्ग का निर्माण किया। यही बिहारी की वह विशेषता है, जिससे उन्हें रीतिसिद्ध काव्यधारा का एकमात्र कवि बना दिया। उन्होंने ही इस धारा का प्रवर्तन किया और उन्हीं के साथ यह समाप्त भी हो गयी। यह बिहारी की असाधारण प्रतिभा का एक ज्वलन्त प्रमाण है।
ग्रन्थ बिहारी ने कुल 719 दोहे लिखे हैं, जिन्हें ‘बिहारी-सतसई’ के नाम से संग्रहीत किया गया है। इसकी अनेक टीकाएँ लिखी जा चुकी है। ‘बिहारी-सतसई’ के समान लोकप्रियता रीतिकाल के किसी अन्य ग्रन्थ को प्राप्त न हो सकी।
साहित्य में स्थान निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि बिहारी उच्चकोटि के कवि एवं कलाकार थे। असाधारण कल्पना-शक्ति, मानव-प्रकृति के सूक्ष्म ज्ञान तथा कला-निपुणता ने बिहारी के दोहों में अपरिमित रस भर दिया है। इन्हीं गुणों के कारण इन्हें रीतिकालीन कवियों का प्रतिनिधि कवि कहा जाता है।
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